Welcome
VIPLAVI LIBRARY "A SPECIFIC LIBRARY of the STATE"
-: Selected by :-
EDUCATION DEPARTMENT,
Govt. Of BIHAR
------
Registered under-
Society Registration Act
-: Selected by :-
EDUCATION DEPARTMENT,
Govt. Of BIHAR
------
Registered under-
Society Registration Act
विप्लवी पुस्तकालय का संक्षिप्त परिचय
● 26 फरवरी, 1931 से विप्लवी पुस्तकालय स्वतंत्रता, समानता एवं सृजन हेतु प्रतिबद्ध है।
● स्वतंत्रता संग्राम का केन्द्र बने पुस्तकालय से जुड़े जुझारू युवकों ने 1931 के बेगूसराय गोलीकांड (26 जनवरी) के दिन अंग्रेज पुलिस की लाठियाँ खाई। फिर 1942 के आंदोलन में निकट के लाखो रेलवे स्टेशन को जला डाला, फिर रेल की पटरियों को उखाड़ कर अंग्रेज सरकार की जड़ें हिला दी। फलस्वरूप सरकार बौखला कर गाँववासियों पर जहाँ दमनात्मक जुल्म ढाया वहीं सामूहिक जुर्माना भी वसूल किया।
● 1946 में अंतरिम आजाद सरकार द्वारा जुर्माने की राशि लौटा देने पर गाँववासियों ने स्मारक स्वरूप पुस्तकालय भवन का निर्माण किया था, जो आजादी के बाद वर्षों-वर्ष तक उपेक्षित रहा और भवन खंडहर में तब्दील हो चुका था।
● गाँव की दूसरी पीढ़ी ने अपनी धरोहर को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से खंडहर में तब्दील पुस्तकालय को सुंदर एवं प्यारा-सा रूप देते हुए भवन निर्माण कराया। 25 सितम्बर, 1986 को राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जयन्ती सप्ताह के अन्तर्गत उत्सवी माहौल में तत्कालीन जिलाधिकारी अफजल अमानुल्लाह ने पुस्तकालय का उद्घाटन किया।
● स्वतंत्रता के लिए संकल्पित गाँव के सर्वश्री सत्यनारायण शर्मा, रामस्वरूप सिंह, कांता प्रसाद सिंह, माजिद अली, चमरू यादव, मथुरा प्रसाद सिंह, शिवजी चौधरी, फेकू राय, सीताराम सिंह, सत्यनारायण सिंह, जगदीश प्रसाद सिंह एवं फातो राय आदि ने धार्मिक एवं जातिगत विभेदों को त्यागकर ठाकुरवाड़ी की एक कोठरी में इसकी स्थापना की। कुछ वर्ष बाद श्री सत्यनारायण शर्मा ने पुस्तकालय भवन हेतु जमीन दान में दी। सर्वसम्मति से श्री रामस्वरूप सिंह को संस्थापक अध्यक्ष तथा श्री सत्यनारायण शर्मा संस्थापक सचिव निर्वाचित हुए। विदित हो कि अब उपरोक्त सभी सदस्य दिवंगत हैं।
● पुस्तकालय के बहुआयामी आकर्षक सांस्कृतिक भवन ‘देवी वैदेही सभागार’ का निर्माण श्रीमती वैदेही देवी पति स्वú रुद्रनारायण शर्मा द्वारा प्रदत्त भूमि पर किया गया। सभागार का शिलान्यास डाú पीú गुप्ता के कर कमलों से संपन्न हुआ जबकि उद्घाटन सुप्रसिद्ध कथाकार कमलेश्वर ने की।
उद्घाटन अवसर पर आयोजित भव्य समारोह को संबोधित करते हुए नामचीन साहित्यकार डॉú नामवर सिंह ने इसे ‘अद्वितीय’, ‘अद्भुत’ और ‘प्रेरणादायक’ तथा कमलेश्वर ने ‘अक्षत् दीप स्तंभ_ ‘दुर्लभ सत्य’ एवं ‘शब्द-संस्कृति का आधुनिक तीर्थ’ कहा।
● बहुजन हिताय---शिक्षा, संस्कृति व संस्कार विकसित करने हेतु यह संकल्पित है।
● वर्तमान में बहुभाषिक, बहुविध विषयों के प्राचीन एवं नई से नई लगभग 40000 (चालीस हजार) पुस्तकें संग्रहित हैं। इन दुर्लभ पुस्तक संग्रह को वैश्विक आकार प्रदत्त करते हुए सर्वसुलभ बनाया जाय इसके लिए पुस्तकालय कमिटी ने निर्णय लिया है कि पुस्तकालय को इलेक्ट्रॉनिक लाइब्रेरी से जोड़ें। इसके लिए एक अपील भी जारी की गई है।
● पुस्तकालय परिसर में स्थापित भगत सिंह की कांस्य प्रतिमा और देवी वैदेही सभागार के मुख्य द्वार पर युग प्रवर्त्तक कबीर तथा विद्रोहिणी मीरा की आदमकद भव्यमूर्ति एवं 1931 के छः शहीदों की स्मृति में निर्मित स्मारक के साथ कथाकार प्रेमचंद एवं प्रवेश द्वार पर क्रांतिकारी चन्द्रशेखर आजाद की आदमकद प्रतिमा आम अवाम के प्रेरणास्रोत बने हुए हैं।
● देश की सभी भाषाओं के लेखकों का ऐतिहासिक संगठन प्रगतिशील लेखक संघ, जिसके सभी राष्ट्रीय अधिवेशन 1936 से देश के बड़े-बड़े नगरों-महानगरों में संपन्न होते रहे हैं का 14वाँ राष्ट्रीय अधिवेशन प्रथम बार इसी गोदरगावाँ की धरती पर 9,10,11 अप्रैल, 2008 को शानदार ढंग से कमलेश्वर नगर (पुस्तकालय परिसर) में संपन्न हुआ। इस राष्ट्रीय अधिवेशन में 22 राज्यों के 278 प्रतिभागियों ने भाग लिया। प्रतिभागी नामचीन साहित्यकारों ने अपना उद्गार प्रकट करते कहा कि-‘विप्लवी पुस्तकालय बन्दूक के विकल्प में पुस्तक की संस्कृति का सामाजिक-सांस्कृतिक अभियान है।’ इस ऐतिहासिक अवसर पर मुख्यरूप से डॉú नामवर सिंह, रंगकर्मी हबीर तनवीर, असगर अली इंजीनियर, डॉú विश्वनाथ त्रिपाठी, तलसीराम, पुन्नीलन, बंगलादेश के बदीउर्ररहमान के अतिरिक्त सभी भाषाओं के कई सशक्त विद्वान हस्ताक्षर उपस्थित थे। 2010 के वार्षिकोत्सव में प्रेमचंद की प्रतिमा अनावरण कार्यक्रम में प्रसिद्ध पत्रकार कुलदीप नैयर एवं शहीद भगत सिंह का भांजा प्रो- जगमोहन की उपस्थिति उल्लेखनीय रही।
● नव साम्राज्यवाद के विरुद्ध सांस्कृतिक मार्च, साहित्यिक आमसभा तथा सांस्कृतिक कार्यक्रमों में आस-पास के गाँव के अतिरिक्त दूसरे जिले के लोगों ने भाग लिया जो 10 से 15 हजार की संख्या में थे और हबीब तनवीर निर्देशित एवं रवीन्द्रनाथ ठाकुर रचित नाटक ‘राजरक्त’ को देखा। इसे ऐतिहासिक प्रदर्शन माना गया।
● तीन दिवसीय अधिवेशन की अद्भुत समां थी गाँव में। एक-एक घर ‘प्रांत’ बन गए थे और गाँव ‘देश’। यानी एक गाँव में सम्पूर्ण राष्ट्र का दर्शन हो रहा था।
● 19 एवं 20 मार्च, 2017 को समान शिक्षा पद्धति जैसे महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर दो दिवसीय ‘‘शिक्षा बचाओ सम्मेलन’’ के तहत प्रांतीय सम्मेलन सम्पन्न हुआ। जिसके मुख्य अतिथि प्रो- अनिल सद्गोपाल थे।
● साम्यवादी व्यक्तित्व के धनी, गरीबों के मसीहा डॉú पीú गुप्ता की प्रतिमा अनावरण कार्यक्रम में 24 मई, 2017 को बिहार के मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार की उपस्थिति ऐतिहासिक हो गया। इसी दिन विप्लवी पुस्तकालय को विशिष्ट पुस्तकालय का दर्जा मिला।
● प्रत्येक वर्ष 23 मार्च को शहीद भगत सिंह की शहादत दिवस एवं राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की जयंती पर पुस्तकालय में संगोष्ठी आयोजित की जाती है। जिसमें देश के महान विभूति का आगमन विप्लवी की धरती पर होती है। जिससे आमजन को आगे बढ़ने का हौसला मिलता है।
राष्ट्रीय स्तर पर ब्राह्मणवादी सत्तावाद और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पूंजीवादी बाजारवाद, यह आज की सोच और साहित्य के सामने मौजूद बुनियादी चुनौतियाँ हैं और मेरे लिए यह देखना और उसमें शामिल होना एक महत्त्वपूर्ण और अविस्मरणीय अवसर के साथ-साथ नया अनुभव भी था कि बेगूसराय बिहार के गोदरगावाँ गांव में इन दोनों चुनौतियों का साथ-साथ मुकाबला किया गया। और ताज्जुब यह कि एक मंझोले से गांव गोदरगावाँ के इस सारस्वत आयोजन में पांच हजार श्रोताओं ने शिरकत की।
मैं इसे दर्ज करने से पहले यह भी याद करता हूँ कि पिछले दिनों मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, कर्नाटक तथा आन्ध्रप्रदेशों में मैंने कम-से-कम पच्चीस आयोजनों में हिस्सा लिया और हर जगह चिंतित और बेचैन नागरिक श्रोताओं की, कहीं-कहीं लाखों की और सभी जगह हजारों की उपस्थिति दिखाई पड़ी। पांच वर्ष पहले विचार विमर्श के ऐसे लेखकीय आयोजनों में पचास से सौ-डेढ़ सौ श्रोताओं की उपस्थिति उल्लेखनीय मानी जाती थी। यह एक बड़ा सकारात्मक परिवर्तन और जागरूकता है, जो सभी जगह दिखाई पड़ रही है। तो, मैं बात कर रहा था बेगूसराय के गोदरगावाँ गांव की। दूरदर्शन-मेट्रो चैनल ‘रोजाना’ समाचार कार्यक्रम के अभिरंजन कुमार मेरे मार्गदर्शक थे। सुबह साढ़े चार बजे ट्रेन बरौनी पहुँची। तेलशोधक संयंत्र का विख्यात नगर बरौनी। काफी लोग स्टेशन पर ही मिले। वहां से उनके गाँव केशावे पहुँचा, ताकि हम कुछ सुस्ता लें और फ्रेस हो लें। पंद्रह मिनट का रास्ता। वहाँ भी सुबह-सुबह स्वागत करने वालों का जमावड़ा। घर का माहौल। घर के मुखिया रामानंद प्रसाद शर्मा के साथ ही गांव के बड़ों और छोटों से मुलाकात। घर में माँ, भाभी, मनोरंजन कुमार और उनकी पत्नी, यानी बहू का सान्निध्य। घर में आते-जाते बच्चे। जबर्दस्त खातिरदारी। चाय, अंगूर का शरबत, छाछ-साथ में नाश्ता। भाभी की चाय तो शरबत पर बहू का आग्रह-अनुरोध चल ही रहा था कि कोलकाता से डॉ- नामवर सिंह भी आ गए। तब पता चला कि विप्लवी पुस्तकालय के आयोजन के साथ ही प्रगतिशील लेखक संघ का राज्य सम्मेलन भी गोदरगावाँ में ही हो रहा है। यह सारी महिमा कॉमरेड राजेन्द्र राजन की थी। बिहार विधानसभा में सीपीआई विधायक दल के नेता। हमें बुलाया उन्होंने ही था। भगतसिंह के बलिदान दिवस 23 मार्च को। थोड़ी देर में चलना था। चले तो एक ही भयावह चीज सामने आई। बरौनी तेल शोधक संयंत्र केशावे गाँव के भीतर तक घुस आया था। खुदा न करे कोई भोपाल गैस कांड जैसी दुर्घटना हो, यदि हो गई तो केशावे सहित कई गाँव चपेट में आ जाएंगे---इस तथाकथित विकास के कई और पहलू भी हैं फिलहाल उन्हें स्थगित रखते हुए हम बेगूसराय होते हुए गोदरगावाँ की ओर चलते हैं। भारत के गांवों की तरह ही यह गाँव भी है। पर उनसे बहुत अलग भी। गोदरगावाँ साझा संस्कृति और क्रांतिकारी चेतना का गाँव है। यहीं है यशपाल की स्मृति को समर्पित ‘विप्लवी पुस्तकालय’। हजारों पुस्तकों का ग्रंथागार। सामने स्थापित है शहीद भगतसिंह की भव्य प्रतिमा। हजारों पुस्तकों के साथ सैकड़ों लेखकों के चित्रें से सजे हुए तमाम कक्ष। ---और आश्चर्य की बात-पुस्तकें इश्यू किए जाने वाले रजिस्टर में सैकड़ों पाठकों की मौजूदगी। यह करिश्मा कर दिखाया है ‘राजेन्द्र राजन’ ने जो खुद भी कहानीकार हैं और आनन-फानन में निर्मित किया गया तिमंजिला ‘देवी वैदेही सभागार’, जिसके उद्घाटन का सौभाग्य मुझे मिला। हम इसी सभागार में ठहरे। ऊपर की मंजिल में ठहरे थे सभी समकालीन लेखक मित्र-खगेन्द्र ठाकुर, अरुण कमल, अभय, शंकर, जयनंदन और साथ में डॉ- हरि ठाकुर, संजय झा आदि आदि सभी लेखक। विशेष बात यह थी कि पूरा इलाका दिनकर, राहुल जी, नागार्जुन, यशपाल, रामशरण शर्मा, नेपाली, शिवपूजन सहाय, बेनीपुरी, सुधांशु जी, जानकीबल्लभ शास्त्री, अरुण प्रकाश जैसे जीवित और दिवंगत रचनाकारों की स्मृतियों से भरा था। यहाँ के जनगायक दुष्यंत कुमार और कैफी आज़मी की ग़ज़लें गा रहे थे। उधर साउथ अफ्रीका में विश्वकप का फाइनल मुकाबला चल रहा था और गोदरगावाँ में वैचारिक संघर्ष का प्रखर विचार-विमर्श। नामवर सिंह ने साम्राज्यवाद और बाजारवादी विस्तारवाद के संदर्भ में इराक का मसला उठाया और मैंने हिंदुत्ववादी नाजीवाद और नष्ट किए जा रहे लोकतांत्रिक मूल्यों तथा साझा संस्कृति पर हो रहे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के आक्रमणों के सवाल। पाँच हजार से ज्यादा महिलाएँ, नौजवान और अन्य श्रोता क्रिकेट मैच नहीं देख रहे थे, वे इस गहन विचार-विमर्श में प्रलेस के अन्य लेखकों से मुखातिब थे।त साभार-दैनिक हिन्दुस्तान (संपादकीय) से
पटना में जब विधायक राजेन्द्र राजन और पुष्पराज को हाँ भरी थी तब सोचा भी नहीं था कि जिस पुस्तकालय में चलने को वे कह रहे हैं वह ऐसा होगा। लगा था कि बेगूसराय में जैसा पुस्तकालय हो सकता है वैसा ही होगा और ये लोग इतने सक्रिय हैं तो वहाँ साहित्यिक और वैचारिक गतिविधियाँ कुछ ज्यादा होती होंगी। हमारे महानगरों की तुलना में हमारे कस्बे ज्यादा जीवंत और गतिशील हैं और उनके पढ़ने-लिखने वालों में वह सिनिसिज्म नहीं है जो महानगरों के अभिजन समाज की खास पहचान बन गई है। बेगूसराय, मुझे लगा था कि कुछ उत्तेजक और संवेदनशील होगा।
हम तीन घंटे लेट चल रहे थे। लग रहा था कि अभी भी किसी छोटी सड़क पर हैं जिस पर से चलते हुए राष्ट्रीय राजमार्ग पर आएंगे और फिर वह जगह आएगी जहाँ वह पुस्तकालय है। रोसड़ा से नौ बजे चलना था। हम निकले थे साढ़े दस बजे। फिर कहा गया था कि दो घंटे की दूरी है लेकिन तीन घंटे तो हो ही गए थे और हम अब भी चल रहे थे। ऐसी जगह जाना हो, जहाँ का रास्ता आप नहीं जानते और जहाँ आप पहले कभी गए न हों वहाँ पहुँचने को लेकर अपन नाहक बेचैन नहीं होते। ले जाने वाले के भरोसे सब छोड़ कर नई जगह और इलाके को समझने में मन लगाते हैं। इसलिए जब अचानक बांस का बना एक द्वार पार कर के हम दो मंजिले पक्के के सामने आ गए और गाड़ी रफ़की तो मुझे लगा कि जैसे झुरमुट में से निकल कर पक्की सड़क पर आ गए हों। वह पुस्तकालय था और बेगूसराय में नहीं था। वह मटिहानी का देहाती इलाका था और उस गाँव का नाम गोदरगावाँ था। मिथिला के ऐसे देहाती इलाके में अचानक ऐसा पक्का पुस्तकालय होगा अपन ने सोचा नहीं था। पुस्तकालय के बगल में खुले मैदान में मिट्टðी का भवन था जिसके एक तरफ से खुले हॉल में कोई अस्सी-सौ लोग बैठे थे और माइक चल रहा था।
इस पुस्तकालय के भवन के सामने ही राजेन्द्र राजन मिले और हमें सभा में सीधे ले जाने के बजाय पुस्तकालय में ले गए। वहाँ भी ऊपर चढ़ने के पहले उनने माला थमा दी। सामने भगत सिंह का फैल्ट टोप लगाए काला बस्ट था। हमने उन्हें मालाएं पहनाई। नीचे भगत सिंह का ही वाक्य लिखा था जो हिंसा और क्रांति का फर्क बता रहा था। हम पहली मंजिल पर चढ़े तो सामने एक बड़ी बैठक थी जिसमें किताबों की अलमारियों, सोफा-कुर्सियों और एक बड़े से कूलर के अलावा एक बड़ा डबल बेड भी था। दीवार पर चारों तरफ हिन्दी के नए-पुराने और बड़े -छोटे साहित्याकारों के फोटू लगे हुए थे। दरवाजे के बाहर की अलमारियों में गाँधी का संपूर्ण वाघ्मय, मार्क्स की सब किताबें , लेनिन का साहित्य और रूसी लेखकों की रचनावलियां हमने देखी थीं। अंदर की अलमारियों में निराला और माखनलाल चतुर्वेदी की रचनावलियां तो एकदम दिखीं लेकिन गौर से देखा तो लगा कि जिन-जिन के फोटू लगे हुए हैं उन सभी का समग्र साहित्य वहाँ अलमारियों में अटा हुआ है। साहित्य के अलावा दूसरी भी कई अलमारियों में ज्ञान-विज्ञान की किताबें लगी हुई थीं। यह पुस्तकालय कोई साधारण पुस्तकालय नहीं था। इसका नाम ही विप्लवी पुस्तकालय था। आौर विप्लवी क्यों है इसकी भी कथा है। लेकिन कहा गया कि पहले जरा विश्राम कर लिया जाय और कुछ जलपान भी। विश्राम और जलपान के बीच होती बातचीत में पता चला कि यहाँ आने का इतना आग्रह क्यों किया गया था।
बेगूसराय से कोई बीस-चौबीस किलोमीटर दूर यह गोदरगावाँ-गाँव इतना विद्रोही इतिहास लिए अलसाया हुआ पसरा है इसका अंदाज नहीं हो सकता। भारत छोड़ो आंदोलन के समय इस गाँव में भी उथल-पुथल मची हुई थी। अंग्रेजों को हकालने में लगे लोग पास के लाखो स्टेशन में आग लगा दी। अंग्रेजों की व्यवस्था बिगाड़ कर गाँव वाले वापस आ गए। अंग्रेजों को जब बेगूसराय से फुरसत मिली तो लाखो में उनने गोदरगावाँ के लोगों की करतूत देखी। गाँव को घेर लिया और वहाँ के लोगों ने जो किया था उसकी सजा देने के लिए गाँव पर जुर्माना ठोक दिया। जुर्माना में आठ सौ रफ़पए वसूल किए गए। अंग्रेज शहरों में लौट गए। लेकिन लाखो में उनकी जो पटरी उखड़ी तो फिर जम नहीं पाई और न उस पर उनकी रेलगाड़ी दौड़ सकी। चार साल में उनके पांव उखड़ गए। गोदरगावाँ जैसे कई गाँव थे जहाँ के लोगों ने नारा लगाया था कि अंग्रेजो भारत छोड़ो। जब भारत के गाँव-गाँव से ऐसा नारा लगने लगे तो कौन टिका रह सकता है? सन् छियालीस में बिहार में अंतरिम सरकार बनी तो उसके प्रधानमंत्री श्रीकृष्ण बाबू ने तय किया कि भारत छोड़ो आंदोलन में जो भी लोग पकड़े गए उन्हें रिहा किया जाए और लोगों से जो जुर्माना लिया गया था वह गाँवों को लौटा दिया जाए। गोदरगावाँ से अंग्रेजों ने जो आठ सौ रफ़पए जुर्माना वसूल किया था वह उन्हेें लौटा दिया गया। लेकिन गोदरगावाँ के गाँववालों ने तय किया कि जुर्माने का यह जो पैसा वापस मिला है इसे उन लोगों को लौटाया न जाए जिनने जुर्माने में पैसे दिए थे। इस धन से कुछ ऐसा किया जाए जो भारत छोड़ो आंदोलन में गोदरगावाँ के लोगों के योगदान को स्थायी और जीवंत स्मारक में बदल सके।
जब आजादी का आंदोलन चल रहा था तो गाँव की ठाकुरबाड़ी में एक पुस्तकालय चलता था। उसका कामकाज वहीं के सत्यनारायण शर्मा देखा करते थे। इस पुस्तकालय से पुस्तकें ले और पढ़ कर गाँववालों ने आजादी की लड़ाई में शामिल होने की प्रेरणा पाई थी। यहाँ की पुस्तकों ने उस पूरे इलाके में जागृति पैदा की थी। गाँव के लोग पुस्तकालय की भूमिका को बहुत अच्छी तरह से जानते थे। उनने तय किया कि जुर्माने का जो पैसा वापस मिला है उससे एक अच्छा और बड़ा पुस्तकालय बनाया जाए। उसकी स्थापना उसी दिन की जाए जिस दिन भारत को आजादी मिले। इस निश्चय के अनुसार पंद्रह अगस्त सन् सैंतालीस को पुस्तकालय की स्थापना तो हो गई लेकिन भवन बनना शुरू नहीं हुआ। सत्यनारायण शर्मा ने घोषणा की थी कि सड़क पर उनकी जो जमीन है उसी पर पुस्तकालय बनेगा। लेकिन उनके बड़े भाई ने वह जमीन देने से इनकार कर दिया। इससे शर्मा जी इतने दुखी हुए कि घर छोड़कर निकल गए। वे गाँव और घर वापस तभी आए जब उनके बड़े भाई ने वह जमीन पुस्तकालय को दे कर उसकी रजिस्ट्री नहीं करवा दी। जमीन मिल गई तो काम आगे बढ़ा। आठ सौ रफ़पयों में ईंट का भट्टðा लगवाया गया। गाँव वालों ने श्रमदान से पुस्तकालय का भवन बनाना शुरू किया। लेकिन छत पड़ने से पहले काम रफ़का तो ऐसा रफ़का कि कोई पैंतीस साल तक कुछ नहीं हुआ। विप्लवी पुस्तकालय का अधूरा भवन गाँव की फूट और किचकिच का स्मारक बना पड़ा रहा। फिर एक भले आईएएस अफसर उस इलाके में तैनात हुए और उनने सरकारी मदद से भवन बनवाया जो सन छियासी में तैयार हो गया। उसी साल की पच्चीस सितंबर को पुस्तकालय का विधिवत उद्घाटन एक-दूसरे आईएएस अफसर अफजल अमानुल्लाह ने किया। जो सत्यनारायण शर्मा आजादी के पहले इस पुस्तकालय को चलाते थे और जिनने घर से भाग कर अपने बड़े भाई से इसके लिए जमीन निकलवाई थी उन्हीं के बेटे राजेंन्द्र राजन की कोशिशों से आखिर यह पुस्तकालय बन कर तैयार हुआ। पुस्तकालय में सत्यनारायण शर्मा की तस्वीर कहीं दिखाई नहीं दी। इसका भी कोई खुलासा नहीं कि इतने स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों में से भगतसिंह की ही मूर्ति वहाँ क्यों लगाई गई। लेकिन मूर्ति अच्छी है और चमकती है।
मैंने कहा कि यह पुस्तकालय ऐसा विलक्षण और विप्लवी पुस्तकालय होगा इसका मुझे कतई अंदाज नहीं था। इसलिए मिथिला के उस ग्रामीण क्षेत्र में इसे इतनी अच्छी तरह खड़ा और चलता देख कर मैं अभिभूत था। सभा में जाने के लिए मुँह-हाथ धोने बाथरूम गया तो वहाँ सभा की कार्रवाई सुनाई दे रही थी। कहा जा रहा था सभा अभी चार बजे तक चलेगी। सुन कर मेरा तनाव और लेट होने का अपराधबोध दूर हुआ। अभी घंटा डेढ़ घंटा और दिया है गाँववालों ने। हम जब वहाँ पहुँचे तो तीन बज चुके थे। सभा सुबह ग्यारह बजे से चल रही थी यानी चार घंटे से लोग बैठे सुन और सुना रहे थे। हमारे जाने के बाद डेढ़ घंटे सभा और चली। कोई सौ लोग उस गर्मी में मिट्टðी के फर्श पर बैठे हुए थे। बिजली आ-जा रही थी। लेकिन इस सबसे गाँव वाले उखड़े नहीं थे। सभा में खेती पर सरकारी नीति बहस का विषय थी। विदेशी माल के भारत आने की छूट के बाद खेती और किसानी के क्या हाल हो रहे हैं इसकी जानकारी सबको थी। वे किसान जानते थे कि उनका पैदा किया गया अनाज सही कीमत पर बिक क्यों नहीं रहा है। खेती में लगने वाला सामान महँगा क्यों हो गया है। उनके दूध को आजकल बाजार में कोई पूछता क्यों नहीं। और अगर यही हालत बनी रही तो हमारी खेती और हमारे कल कारखाने और हमारे फल बरबाद क्यों हो जाएँगे। जिस तरह उस ठेठ ग्रामीण इलाके में वह विप्लवी पुस्तकालय खड़ा था और अचरज में डाल रहा था उसी तरह वहाँ के किसान जानते थे कि उनकी आजादी खतरे में पड़ रही है। उन्हें मालूम नहीं था कि इस नए खतरे, इस नई परिस्थिति से निपटा कैसे जाए। लेकिन उनकी बातों, उनके सवालों और उनकी बेचैनी से साफ था कि ऊपर से शांत, हरे-भरे और फलों से लदे इस इलाके में अंदर लावा खदबदा रहा है। क्या फिर गोदरगावाँ के किसान घरों से निकलेंगे और लाखो स्टेशन को घेर कर पटरियाँ उखाड़ कर स्टेशन में आग लगा देंगे?
मैं नहीं जानता। लेकिन उन्हें अपने विप्लवी पुस्तकालय के पास इस तरह जुटे हुए और सुनते-सुनाते देख कर मुझे बड़ा भरोसा और हौसला मिला। अटल बिहारी वाजपेयी को सुधारों पर डटे हुए और उनके मंत्रियों को एक-एक कर के भारत की संपदा और आजादी बेचते हुए देख कर दिल्ली, मुंबई और कलकत्ता और कई शहरों में मुझे देश उजड़ता हुआ लगने लगता है। अचानक लगता है कि चीजों पर से चमक उतर गई है और शहर सजधज कर गाँवों की लाशों पर खड़े हो रहे हैं। पता नहीं आर्थिक सुधार किन किसानों, मजदूरों, दस्तकारों और दलित आदिवासियों का आर्थिक विकास कर रहे हैं। शेयर बाजारों में अप्सरा पूँजी नाच रही है और हमारे धन धान्य से उपजी लक्ष्मी उजड़ते खेत-खलिहानों में पागलों की तरह घूम रही है। लेकिन जिस गोदरगावाँ के लोगों ने भारत छोड़ो आंदोलन में लाखो स्टेशन जला कर पटरियाँ उखाड़ दी थीं वे क्या अपनी बर्बादी होने देंगे? क्या वे जानते हैं कि उनकी आजादी पर फिर खतरा मंडरा रहा है? उनने कहा कि हाँ हमें मालूम है। लाखो का नया रास्ता बताओ। हम फिर जाएँगे। मैंने कहा कि मुझे नहीं मालूम। लेकिन ढूंढ़ो। रास्ता है और मिलेगा। लुटियन के टीले पर बैठे हुए मंत्रियों जागो! गोदरगावाँ के लोग आ रहे हैं।
ततत
बिहार के बेगूसराय जिले का एक गाँव गोदरगावाँ ऐसा गाँव जहाँ के युवकों ने सन् 1931 में अंग्रेजी राज के विरुद्ध बेगूसराय के जुलूस में हिस्सा लिया। इस जुलूस पर अंग्र्रेजी सैनिकों ने गोलियाँ चलाई। छह लोग शहीद हुए। इस उत्तेजना के वातावरण में भगतसिंह और गाँधी जी के आह्वान से प्रेरित युवकों ने गोदरगावाँ की ठाकुरबाड़ी में 26 फरवरी, 1931 को क्रांतिकारी केन्द्र के रूप में एक पुस्तकालय की स्थापना की। यहाँ के नागरिकों ने 1942 के आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। परिणामस्वरूप अंग्रेजों ने गोदरगावाँवासियों से 800 रुपये सामूहिक जुर्माने की राशि वसूल की। 1946 में डा- श्रीकृष्ण सिंह के नेतृत्व में बनी अंतरिम सरकार ने जब इस राशि को लौटा दिया तो गाँववासियों ने जनता से और सहयोग प्राप्त करके पुस्तकालय भवन का निर्माण किया।
यह गोदरगावाँ को अतीत से प्राप्त विरासत है। खोज की जाए तो पता चलेगा कि न जाने भारत के कितने गाँव ऐसी विरासत से जुड़े होंगे। लेकिन गोदरगावाँ में एक विशेष बात है जो कम मिलती है। यहाँ के निवासी इस विरासत, गौरव के महत्त्व को भली-भाँति समझते हैं। समझते ही नहीं अपने जीवन को इसके अनुसार ढालने का प्रयास भी करते हैं। इस गाँव के वातावरण में कुछ ऐसा है जो रोमांचक है। यहाँ के लेखक इस विरासत को लेकर आगे बढ़ रहे हैं। आज भी यहाँ सामाजिक परिवर्तन के उद्देश्य से लैस साहित्य लिखा जा रहा है। उत्तर आधुनिक कहे-जाने वाले, विचारधारा और इतिहास के अंत के दौर में। यहाँ भगतसिंह, काजी नजरूल इस्लाम पर केन्द्रित विशेषांक निकाले जाते हैं। बेगूसराय की धरती पर विचार सकर्मक है। साहित्य कर्म करने की प्रेरणा देता है। सकर्मकता भी साहित्य रचने की प्रेरणा देती है। राहुल जी, बेनीपुरी, यशपाल के साहित्य को पढ़कर यहाँ के लोग क्रांतिकारी बने हैं। ऐसे लोग यहाँ आज भी हैं। भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद, सुभाषचन्द्र बोस का जीवन यहाँ के लोगों के लिए अनुकरणीय बना हुआ है। साथ ही यहाँ ऐसे लोगों पर साहित्य रचा जाता है जिन्होंने व्यक्तिगत लाभ-लोभ को छोड़कर विषमता, पिछड़ेपन तथा शोषण के अंत को अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया है। ये लोग देशभक्तों की उस परम्परा में आते हैं जो यदि चाहते तो कौन-सी व्यक्तिगत उपलब्धि नहीं पा सकते थे। कामरेड राजेन्द्र राजन ने क्रांतिकारियों की इस परम्परा की निरंतरता को ढूँढ़ा है और एक उदाहरण तथा आदर्श के रूप में लोगों के सामने रखा है। जहाँ सारे देश में अधिकतर निराशा का साहित्य लिखा जा रहा है वहाँ बेगूसराय में आशा, उत्साह का साहित्य लोगों को प्रेरणा दे रहा है। श्री राजेन्द्र राजन ने कामरेड चन्द्रशेखर पर लिखा है, डा- पी- गुप्ता पर लिखा है, ऐसे अनेक सांस्कृतिकर्मियों पर लिखा है जो अपने-अपने व्यवसाय या पेशे में रहते हुए जनता की सेवा कर रहे हैं। उनकी किताब ‘स्याही के रंग अनेक’ का समर्पण देखिए ‘‘श्री हरिहर प्रसाद सिंह, सेवानिवृत्त आई-पी-एस-, पूर्व आरक्षी महानिदेशक, बिहार जिनकी ईमानदारी एवं महानता का मैं कायल हूँ। मानव होकर भी मानवीय कमजोरियों से ऊपर उठकर जो श्रेष्ठ हैं और मुझ पर जिनका असीम स्नेह है।’’ आज के दौर में यह ऐतिहासिक प्रवृत्ति है। राजेन्द्र राजन पन्द्रह वर्षों तक विधायक रहे हैं, उन्हें देखकर लगता ही नहीं कि वे आज के नेताओं की तरह के नेता हैं। पहले वे साईकिल पर चलते थे, फिर मोटरसाइकिल पर और अब उन्होंने एक पुरानी एम्बेसेडर खरीद ली है जो अधिकतर बेगूसराय जाने वाले साहित्यकारों के काम आती है। राजन जी ने राजनीति के सांस्कृतिक चेहरे को बचाए रखने का प्रयास किया है। उनके लिए समाज की कोेई समस्या राजनीति से अलग नहीं है। इस कार्य में वे अकेले नहीं हैं। उनके साथ प्रगतिशीलों की पूरी टीम है जिसमें डा- आनंदनारायण शर्मा, मदनेश्वर नाथ दत्त, प्रोú बोढ़न प्रसाद सिंह, डा- अखिलेश्वर कुमार, आनंद प्र- सिंह, रमाकांत चौधरी, अमरनाथ सिंह, विष्णुदेव कुँवर, नरेन्द्र कुमार सिंह, मनोरंजन कुमार, अगम कुमार, अमित रंजन भारती, शमशेर आलम आदि का नाम लिया जा सकता है।
यदि आप उपर्युक्त पुस्तकालय (विप्लवी पुस्तकालय) को नहीं देखें तो विश्वास नहीं कर पाएंगे कि एक गाँव में ऐसा भव्य, आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित, सुव्यवस्थित पुस्तकालय हो सकता है। इसमें साहित्य, इतिहास, दर्शन, कोश, समाजशास्त्र आदि विषयों की नई-से-नई पुस्तकें हैं। समकालीन पत्र-पत्रिकाएँ हैं। पुस्तकालय के सभागार के परिसर में शहीद भगतसिंह, विद्रोह की प्रतीक मीरा और अंग्रेजों की गोलियों से शहीद हुए छह देशभक्तों की प्रतिमाएं हैं। पुस्तकालय के संरक्षक राजेन्द्र राजन ही हैं। उनके पुरखों और स्वयं उनका श्रम तथा पसीना इस पुस्तकालय के निर्माण में लगा है। किशोरवय में राजन जी पढ़ाई-लिखाई छोड़कर पुस्तकालय निर्माण के पीछे दीवाने थे। उनके पिता की इच्छा थी कि मरने के बाद श्राद्ध न हो उसके स्थान पर पुस्तकालय बनवा दिया जाए। स्वर्गीय कमलेश्वर ने पुस्तकालय के विषय में लिखा, ‘‘बख्तियार खिलजी ने पुस्तकों को जलाया था। कामरेड राजेन्द्र राजन ने विप्लवी पुस्तकालय की पुनर्स्थापना की है। इतिहास में हुई कमी को इस तरह भी पूरा किया जा सकता है।’’
राजन जी और उनकी टीम गोदरगावाँ में प्रतिवर्ष एक भव्य साहित्यिक-सांस्कृतिक समारोह का आयोजन करती है। इन आयोजनों में साहित्यिक-राजनीतिक क्षेत्र की बड़ी-बड़ी हस्तियां शामिल हो चुकी हैं। इन पंक्तियों का लेखक भी दो बार वहाँ की यात्र कर चुका है जो उसके लिए अविस्मरणीय है। इसी क्रम में उसने सदानंदपुर की भी यात्र की। यह भी बेगूसराय जिले का एक गाँव है जो गोदरगावाँ के निकट है। सदानंदपुर को कवि परशुराम सिंह ‘परशु’ नगर भी कहा जाता है। ये क्रांतिकारी तथा निर्भीक जनसेवी व्यक्ति थे। गाँव के लोग इन्हेे ‘दरिद्र जी’ के नाम से भी पुकारते थे। सदानंदपुर में कम्युनिस्ट पार्टी की नींव रखने वालों में प्रमुख थे। शोषणकर्ता जमींदारों के सक्रिय विरोधी। ज़मींदारों एवं सूदखोरों से गरीबों को मुक्ति दिलाने के लिए इन्होंने एक सहयोग समिति का निर्माण किया इसके लिए इन्हें अपनी सम्पत्ति बेचनी पड़ी। ज़मीदारों, यथास्थितिवादियों, भ्रष्टाचारियों पर इन्होंने लोक-शैली में कलम चलाई। एक दिन अचानक ये कहाँ गुम हो गए किसी को पता नहीं चला। आज तक लापता हैं लेकिन उनके गीत-कविताएं जिले की जनता में अब भी गाई जाती हैं उनका एक प्रसिद्ध गीत है-‘पागल’। इस गीत की संवेदना को कबीर और निराला से जोड़ा जा सकता है। कोई कवि यदि कहे कि मैं पागल हूँ तो इसका अर्थ यह नहीं कि वह सचमुच पागल होता है या हो जाना चाहता है। कबीर भी ‘जागते’ थे और ‘रोते’ थे। निराला जैसे कवि भी परेशान रहते थे। ये सब समाज की यातना से अपने को जोड़ते थे। विषम यथार्थ संवेदनशील मनुष्य को बड़ी यातना में डालता है। दूसरे की परेशानी से दुःखी होनेवालों को ‘सफल’ लोग पागल कहते हैं। ये पागलपन एक मूल्य है, परिवर्तनेच्छा है।
विप्लवी पुस्तकालय का सभागार विशाल है। इसमें लगभग पाँच सौ लोग बैठ सकते हैं। स्त्रियों के बैठने की व्यवस्था बालकनी में की जाती है। प्रत्येक समारोह में यह विशाल सभागार पूरी तरह भरा होता है।
ये श्रोता सचमुच सुनने-विचारने आते हैं। महानगरों में इतनी उपस्थिति अब कम ही कार्यक्रमों में होती है, न ही ऐसे श्रोता होते हैं। गोदरगावाँ में जाने वाले वक्ता कुछ सिखाने से अधिक सीखकर आते हैं, एक तरह की प्राणवायु उन्हें वहाँ प्राप्त होती है। उन्हें यह पता चलता है कि देश छोटी समझी जानेवाली जगहों पर कितने समर्पित और प्रतिभाशाली लोग हैं। ऐसे ही एक व्यक्तित्व हैं सुदामा गोस्वामी जिनका कार्यक्रम इन पंक्तियों के लेखक ने दो बार विप्लवी पुस्तकालय के सभागार में देखा है। सुदामा गोस्वामी का नाम अभिनय और नृत्य के क्षेत्र में आस-पास के इलाके में बहुत आदर से लिया जाता है। वे बिना किसी ताम-झाम, आडम्बर तथा बिना साधनों के जैसा अभिनय करते हैं वैसा बड़े-बड़े के बस का नहीं है। आँखों से ही बहुत कुछ कह लेने की क्षमता रखते हैं।
सुदामा जी निःस्वार्थ भाव से बेगूसराय में कला साधना में रत हैं। दिल्ली या किसी अन्य महानगर में होते या जुगाड़ी होते तो ख्याति एवं धन-धान्य से सम्पन्न होते। भारत सरकार को, कम-से-कम बिहार सरकार को तो उनके योग-क्षेम की व्यवस्था करनी चाहिए।
गोदरगावाँ का विप्लवी पुस्तकालय-एक पुस्तकालय ही नहीं वह एक प्रेरणाकेन्द्र एवं आन्दोलन है। देश के सुदूर क्षेत्रें में ऐसे पुस्तकालयों को स्थापित करने की आज़ विशेष जरूरत है। इस संस्कृति-संकट के समय ऐसे पुस्तकालय और संस्कृति-केन्द्र देश में एक नये ऐतिहासिक सांस्कृतिक आन्दोलन का सृजन कर सकते हैं।
विप्लवी पुस्तकालय एक अनोखा अनुभव
वेदप्रकाश / प्राध्यापक हिन्दी विभाग, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय
संस्थाओं और सामूहिकता के टूटने के इस दौर को लेकर बहुत से लोग अतिवाद तक पहुंच जाते हैं और घनघोर निराशा व्यक्त करते हैं। लेकिन इस दौर में कुछ ऐसा भी है जो मूल्यों से युक्त, आंदोलनधार्मी, आशा को बनाए रखने वाला, स्वाधीन चेतना का प्रतीक और प्रेरणा देने वाला है यह अनुमान की नहीं, अनुभव की बात है। वह अनुभव है 'विप्लवी पुस्तकालय' 'विप्लवी पुस्तकालय जाकर ही उसकी भव्यता और महत्ता का पता चलता है। इसका ब्यौरा प्रस्तुत कर रहे हैं।
आज का समय संस्थाओं और सामूहिकता के टूटने का समय कहा जाता है। बहुत से लोगों को यह संकट जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में दिखाई पड़ता है। वे इसे लेकर अतिवाद तक पहुँच जाते हैं और घनघोर निराशा व्यक्त करते हैं। लेकिन ऐसा कहे जाने वाले समय में कुछ ऐसा भी है जो मूल्यों से युक्त, आंदोलनधर्मी आशा को बनाए रखने वाला, स्वाधीन चेतना का प्रतीक और प्रेरणा देने वाला है। यह अनुमान ही नहीं, अनुभव की बात है। यह अनुभव है विप्लवी पुस्तकालय । कुछ जगहों के बारे में यह कहा जाता है कि यदि आप उन्हें स्वयं जाकर न देखें तो उनकी भव्यता और महत्ता का अनुमान नहीं कर सकते। 'विप्लवी पुस्तकालय' के विषय में भी यह कहा जा सकता है।
यह पुस्तकालय बेगूसराय (बिहार) जिले के मटिहानी प्रखंड के एक गाँव-गोदरगावों में स्थित है। इस गाँव में पहले कुछ मुसलमान रहते थे जी गुद्दर यानी फटे-पुराने कपड़ों से गेंदरा (सुजनी) तैयार करने का काम करते थे। अतः इसे सुंदरगामा नाम से जाना जाने लगा। बाद में यही गोदरगावाँ हो गया। गोदरगावाँ और विप्लवी पुस्तकालय का अतीत बहुत रोमांचक है। स्वाधीनता से पहले गाँव में एक ठाकुरबाड़ी थी, जहां से क्रांतिकारी गतिविधियों का संचालन होता था। 26 जनवरी, 1931 को बेगूसराय में अंग्रेजी शासन के विरोध में एक जुलूस निकला। अंग्रेजों ने इस जुलूस पर गोलियाँ चलाई। छह युवक मारे गये। जुलूस से लौटकर गोदरगावाँ के युवकों ने क्रांतिकारी केन्द्र के निर्माण हेतु गाँव की उपर्युक्त ठाकुरबाड़ी में एक बैठक की। वहीं क्रांतिकारी साहित्य एवं पत्र-पत्रिकाएँ मंगवाने के लिए महावीर पुस्तकालय की स्थापना की गई। इस कार्य में स्व. सत्यनारायण शर्मा का बहुत बड़ा योगदान था । अन्य लोगों में रामस्वरूप सिंह, कामता प्रसाद सिंह, शिवजी चौधरी, चमरू यादव, माजिद अली, सत्यनारायण सिंह, फातो राय, सीताराम सिंह, जगदीश प्रसाद सिंह और फेकू राय प्रमुख थे। यह पुस्तकालय सांप्रदायिक और जातीय सद्भाव का अदभुत नमूना बन गया था। लोग वहाँ बिना भेदभाव के इकट्ठे होते थे।
सन् 1942 की अगस्त क्रांति के पास के लाखो स्टेशन को लूटने, जलाने और पटरियों को उखाड़ फेंकने में
पुस्तकालय से जुड़े युवकों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। इस जुर्म की सजा के रूप में अंग्रेज सरकार ने गोदरगावों से आठ
सौ रुपये जुर्माने की रकम वसूल की। चूंकि ठाकुरबाड़ी में चल रहा पुस्तकालय आजादी की लड़ाई का केन्द्र बना हुआ था,
इसलिए 1946 में डा. श्रीकृष्ण सिंह के नेतृत्व में बनी अंतरिम सरकार द्वारा जुर्माने की राशि वापस कर दी गई। इस राशि से
ही स्मारक - स्वरूप पुस्तकालय भवन का निर्माण कराया गया। आरंभ में यानी सन् 1947-48 में यह ईंट - खपड़े का भवन
बना। काफी समय तक निर्माण का कार्य अधूरा पड़ा रहा। लेकिन कुछ मित्रों- राजेन्द्र राजन, रामचन्द्र सिंह, राजेन्द्र प्रसाद
सिंह, वैद्यनाथ दास आदि के परिश्रम से पुस्तकालय में पुस्तकों तथा पत्रिकाओं के संग्रह का कार्य आरंभ हुआ ।
सत्यनारायण शर्मा ने अपने पुत्र राजेन्द्र राजन से कहा कि मेरी मृत्यु के बाद श्राद्ध करने के स्थान पर पुस्तकालय बनवा
देना । सत्यनारायण जी की मृत्यु के बाद एक वर्ष के भीतर सन् 1985-86 में इस पुस्तकालय के शानदार भवन का निर्माण
हुआ और 25 सितंबर, 1986 को उद्घाटन । यही विप्लवी पुस्तकालय कहलाया। इस पुस्तकालय में अपने समय की
नई से नई पुस्तक उपलब्ध है। आज जब बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों को पुरानी पुस्तकों के गायब होने और नई पुस्तकों के
अभाव के संकट का सामना करना पड़ रहा है, विप्लवी पुस्तकालय' अपने आप में एक उदारहण है। इस पुस्तकालय के
परिसर में शहीदे-आजम भगतसिंह की कांस्य प्रतिमा लगाई गई है।
2002-03 में पुस्तकालय के ठीक सामने देवी वैदेही सभागार का निर्माण हुआ। भगतसिंह के बलिदान दिवस के अवसर पर 23 मार्च, 2003 को इसका उद्घाटन कमलेश्वर ने किया। यह सभागार एक संग्रहालय की भूमिका निभाता है। इसमें हिंदी के लगभग सभी प्रसिद्ध साहित्यकारों के चित्र लगे हैं। कम्प्यूटर, संगीत, नाट्यकला, चित्रकला तथा स्वरोजगार के प्रशिक्षण का संचालन यहाँ सफलतापूर्वक किया जाता है। यह सभागार आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित है। इसमें सांस्कृतिक समारोह, नाटक, गोष्ठियाँ तथा सभाएँ आयोजित की जाती हैं। प्रॉजेक्टर है, इसलिए फिल्म भी दिखाई जाती हैं। इसमें कम-से-कम पाँच सौ लोगों के बैठने की व्यवस्था हैं, सभागार के प्रत्येक तल पर अतिथियों के रुकने के लिए सुविधायुक्त, सुसज्जित कमरे हैं। इन कमरों का नामकरण प्रेमचंद की रचनाओं के नाम पर किया गया है। सभागार की बाहरी दीवार पर ऊपर की ओर मीरा की विशाल प्रतिमा और नीचे उन छह युवकों की प्रतिमाएँ हैं जो 1931 में अंग्रेजों की गोलियों के शिकार हुए थे।
'विप्लवी पुस्तकालय' ने बेगूसराय के लोगों को नई चेतना दी है। वैसे यह पुस्तकालय स्वयं उनकी चेतना का प्रतीक है। जब भी गोदरगावाँ जाना होता है, वहाँ के लोग नए उत्साह, उमंग, जोश और आशा से भरे दिखाई देते हैं। गौरवपूर्ण अतीत तो भारत के बहुत-से गाँवों का है लेकिन उनमें से कितने गाँवों ने उस अतीत को याद रखा और उसके आधार पर विकास किया है? यह पुस्तकालय राज्य ही नहीं, देश का आदर्श पुस्तकालय माना जा रहा है। यहाँ प्रतिवर्ष मेला लगता है और राष्ट्रीय स्तर के विद्वान, विचारक राजनेता इकट्ठे होते हैं। जीवन की अंतः संबद्धता यहाँ साक्षात नजर आती है ।
सन् 1942 की अगस्त क्रांति के पास के लाखो स्टेशन को लूटने, जलाने और पटरियों को उखाड़ फेंकने में पुस्तकालय से जुड़े युवकों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। इस जुर्म की सजा के रूप में अंग्रेज सरकार ने गोदरगावाँ से आठ सौ रुपये जुर्माने की रकम वसूल की। चूंकि ठाकुरबाड़ी में चल रहा पुस्तकालय आजादी की लड़ाई का केन्द्र बना हुआ था, इसलिए 1946 में डा. श्रीकृष्ण सिंह के नेतृत्व में बनी अंतरिम सरकार द्वारा जुर्माने की राशि वापस कर दी गई। इस राशि से ही स्मारक - स्वरूप पुस्तकालय भवन का निर्माण कराया गया। आरंभ में यानी सन् 1947-48 में यह ईट- खपड़े का भवन बना। काफी समय तक निर्माण का कार्य अधूरा पड़ा रहा। लेकिन कुछ मित्रों- राजेन्द्र राजन, रामचन्द्र सिंह, राजेन्द्र प्रसाद सिंह, वैद्यनाथ दास आदि के परिश्रम से पुस्तकालय में पुस्तकों तथा पत्रिकाओं के संग्रह का कार्य आरंभ हुआ। सत्यनारायण शर्मा ने अपने पुत्र राजेन्द्र राजन से कहा कि मेरी मृत्यु के बाद श्राद्ध करने के स्थान पर पुस्तकालय बनवा देना । सत्यनारायण जी की मृत्यु के बाद एक वर्ष के भीतर सन् 1985-86 में इस पुस्तकालय के शानदार भवन का निर्माण हुआ और 25 सितंबर, 1986 को उद्घाटन । यही विप्लवी पुस्तकालय कहलाया । इस पुस्तकालय में अपने समय की नई से नई पुस्तक उपलब्ध है। आज जब बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों को पुरानी पुस्तकों के गायब होने और नई पुस्तकों के अभाव के संकट का सामना करना पड़ रहा है, 'विप्लवी पुस्तकालय अपने आप में एक उदारहण है। इस पुस्तकालय के परिसर में शहीदे-आजम भगतसिंह की कास्य प्रतिमा लगाई गई है।
2002-03 में पुस्तकालय के ठीक सामने 'देवी वैदेही सभागार का निर्माण हुआ। भगतसिंह के बलिदान दिवस के अवसर पर 23 मार्च, 2003 को इसका उद्घाटन कमलेश्वर ने किया। यह सभागार एक संग्रहालय की भूमिका निभाता है। इसमें हिंदी के लगभग सभी प्रसिद्ध साहित्यकारों के चित्र लगे हैं। कम्प्यूटर, संगीत, नाट्यकला, चित्रकला तथा स्वरोजगार के प्रशिक्षण का संचालन यहाँ सफलतापूर्वक किया जाता है। यह सभागार आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित है। इसमें सांस्कृतिक समारोह, नाटक, गोष्ठियाँ तथा सभाएँ आयोजित की जाती है प्रॉजेक्टर है. इसलिए फिल्म भी दिखाई जाती हैं। इसमें कम-से-कम पाँच सौ लोगों के बैठने की व्यवस्था हैं, सभागार के प्रत्येक तल पर अतिथियों के रुकने के लिए सुविधायुक्त, सुसज्जित कमरे हैं। इन कमरों का नामकरण प्रेमचंद की रचनाओं के नाम पर किया गया है। सभागार की बाहरी दीवार पर ऊपर की ओर मीरा की विशाल प्रतिमा और नीचे उन छह युवकों की प्रतिमाएँ हैं जो 1931 में अंग्रेजों की गोलियों के शिकार हुए थे।
'विप्लवी पुस्तकालय ने बेगूसराय के लोगों को नई चेतना दी है। वैसे यह पुस्तकालय स्वयं उनकी चेतना का प्रतीक है। जब भी गोदरगावाँ जानी होता है, वहाँ के लोग नए उत्साह, उमंग, जोश और आशा से भरे दिखाई देते हैं। गौरवपूर्ण अतीत तो भारत के बहुत-से गाँवों का है लेकिन उनमें से कितने गाँवों ने उस अतीत को याद रखा और उसके आधार पर विकास किया है? यह पुस्तकालय राज्य ही नहीं, देश का आदर्श पुस्तकालय माना जा रहा है। यहाँ प्रतिवर्ष मेला लगता है और राष्ट्रीय स्तर के विद्वान, विचारक, राजनेता इकट्ठे होते हैं। जीवन की अंतः संबद्धता यहाँ साक्षात नजर आती है।
गोदरगावाँ में नया इतिहास तब बना जब पिछले वर्ष 9 से 11 अप्रैल, 08 को प्रगतिशील लेखक संघ का राष्ट्रीय अधिवेशन आयोजित किया गया। प्रलेस के 72 वर्षों के इतिहास में पहली बार एक गाँव में ऐसा अभूतपूर्व आयोजन, जिसमें नामवर सिंह, हबीब तनवीर, असगर अली इंजीनियर, विश्वनाथ त्रिपाठी, तुलसीराम पुन्नीलन, खगेन्द्र ठाकुर, गीतेश शर्मा और बांग्लादेश के बदीउर्रहमान आदि के साथ भारत के 17 राज्यों 22 भाषाओं के 278 प्रतिनिधि रचनाकार इकट्ठे हुए। इस अवसर पर गोदरगावों में साम्राज्यवाद के विरुद्ध विशाल सांस्कृतिक मार्च निकाला गया। हजारों लोगों ने इसमें भाग लिया। हबीब तनवीर के निर्देशन में, उनके साथ आए 39 कलाकारों द्वारा रवीन्द्रनाथ ठाकुर रचित राजरक्त नाटक की प्रस्तुति को दस हजार से ज्यादा दर्शकों ने देखा और सराहा।
इस बार फिर, डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी के साथ, पांचवी बार गोदरगावाँ जाना हुआ। फिर एक नया अनुभव। जहाँ ऐतिहासिकता होती है या सौंदर्य होता है, वहाँ जाते हुए थकान नहीं, एकरसता नहीं, बल्कि पुनः एक नवीनता का अहसास होता है। गोदरगावाँ जाकर हमेशा ऐसा लगा। राजेन्द्र राजन ने बताया कि इस बार विप्लवी पुस्तकालय के वार्षिकोत्सव के लिए चन्द्रशेखर आजाद के बलिदान दिवस का अवसर चुना गया है। गोदरगावाँ निवासी रामप्रकाश राय ने अपने दिवंगत बड़े भाई रामपदार्थ राय की स्मृति में चंद्रशेखर आजाद की विशाल मूर्ति बनवाई। इसके लिए शांतिनिकेतन से उसी मूर्तिकार - अनिल कुमार पृथ्वी को बुलवाया गया, जिसने देवी वैदेही सभागार के बाहर बनी मूर्तियाँ बनाई थीं। मूर्ति के अनावरण के कार्यक्रम को विप्लवी पुस्तकालय के वार्षिकोत्सव से जोड़ दिया गया। 28 फरवरी, 2009 को सुबह ग्यारह बजे आजाद चौक पर मेले के से माहौल और बैंड-बाजों के माध्यम से देशभक्ति के गीतों की धुनों के बीच बेगूसराय की जनता, राजेन्द्र राजन, गीतकार बुद्धिनाथ मिश्र, पूर्व आई.जी. उमेश प्रसाद सिंह, भगवान सिंह, रमाकान्त चौधरी, मनोरंजन विप्लवी, अमरनाथ सिंह, नरेन्द्र कुमार सिंह अगम, शमशेर, पुरुषोत्तम, विष्णुदेव कुंवर आदि की उपस्थिति में डा. विश्वनाथ त्रिपाठी ने शहीद चंद्रशेखर आजाद की मूर्ति का अनावरण किया।
इसके बाद एक जुलूस के रूप में सभी लोग विप्लवी पुस्तकालय की ओर पैदल चले। आगे-आगे धुन बजाते हुए बैंड-बाजे, उनके पीछे भगतसिंह और आजाद के चित्र लिए हुए विप्लवी पुस्तकालय गोदरगावों के अध्यक्ष कपिलदेव यादव, सचिव आनंद प्र सिंह एवं अन्य सदस्यगण, फिर उपर्युक्त गणमान्य व्यक्ति और पीछे जनसमूह । विप्लवी पुस्तकालय पहुँचकर भगतसिंह की प्रतिमा पर माल्यार्पण करने के बाद सभी लोग सभागार में पहुँचे जहाँ वैचारिक कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। सभागार हमेशा की भांति श्रोताओं से खचाखच भरा था। कार्यक्रम का आयोजन दिलीप कुमार राय द्वारा सरफरोशी की तमन्ना गीत के गायन से हुआ। दीनानाथ सुमित्र ने कविताएँ सुनाई।
डा. विश्वनाथ त्रिपाठी ने मुख्य वक्तव्य देते हुए कहा कि चन्द्रशेखर आजाद ने 'आजाद' नाम अपना खून देकर
अर्जित किया था। हमारे क्रांतिकारियों ने बड़े-बड़े मूल्यवान शब्दों को सकर्मकता से सार्थक किया था । 1857 की राज्यक्रांति पहली ऐसी क्रांति है जो स्टेट पावर पर कब्जा करने का जनांदोलन है। जनादोलनों में जब सेना शामिल होती है तो आंदोलन का चरित्र बदल जाता है। 1857 की क्रांति में हिंदू, मुस्लिम आदि की एकता है, भाषाओं की एकता है। कहा जाता है कि 1857 की राज्यक्रांति असफल हो गई। लेकिन क्रांतियों न तो निस्संतान होती है, न ही असफल। एक क्रांति दूसरी क्रांति को जन्म देती है। हमारे देश के क्रांतिकारी 1857 और 1942 के बीच की कड़ी हैं। यह परंपरा 1946 के नौसेना विद्रोह तक आती है जिसमें सभी धर्मों और क्षेत्रों के लोग फिर से मिलकर लड़े और अंततोगत्वा भारत स्वाधीन हुआ। भारत की आजादी में गाँधी जी का बहुत बड़ा महत्त्व है, लेकिन इस संदर्भ में 1857 के क्रांतिकारियों और उनकी परंपरा का योगदान बहुत व्यापक है।
(साभार: आजकल जून 2009)
ग्यारहवीं योजना के प्रारूप को अंतिम रूप देने की तैयारी जोरों से चल रही है। सरकार को विश्वास है कि नई योजना के दौरान देश का विकास तेजी से होेगा। इसकी वजहें साफ हैं। पिछले कुछ वर्षों में भारत की आर्थिक विकास दर में काफी तेज गति से बढ़ोतरी हुई है। 2004-05 में आर्थिक विकास दर 7-5 प्रतिशत आंकी गई थी। 2005-06 में यह बढ़कर आठ प्रतिशत तक पहुँच गई। पिछले दशकों में विकास दर सिर्फ पांच फीसदी के इर्द-गिर्द घूमती रही। तेज विकास दर के साथ देश में धनिकों की संख्या भी तेजी से बढ़ी है। पिछले साल अरबपतियों की संख्या में हुई वृद्धि के लिहाज से भारत का स्थान दूसरा है। इतनी तेज विकास दर चीन के सिवा किसी दूसरे देश ने हासिल नहीं की है। सरकार को विश्वास है कि अगली योजना में विकास दर का ग्राफ इससे भी ऊपर रहेगा। नतीजतन, आर्थिक समृद्धि की दिशा में देश तेजी से आगे बढ़ेगा।
लेकिन विडंबना यह है कि मुल्क के अधिकतर लोगों के जीवन में ऊँची विकास दर से कोई बदलाव नहीं आया है। सबसे बुरा हाल ग्रामीण इलाकों का है जहाँ अधिकतर लोगों की जीविका खेती और घरेलू उद्योगों पर निर्भर है। किसान आत्महत्या कर रहे हैं। इसके दो कारण हैं। एक, कृषि को लाचारी का धंधा बना दिया गया है। कृषि और गैर कृषि आमदनी में भारी अंतर से इसका खुलासा होता है। 1950 में इन दोनों में एक और दो का फर्क था, अभी तक एक और पांच से भी अधिक का हो गया है। साथ ही यह स्वाभाविक है कि अगर कृषि को उद्योग का दर्जा बनाया जाता है तो यह बिना भारी सरकारी अनुदान के नहीं चल सकता। अमेरिका हर साल पचहत्तर अरब डॉलर का अनुदान देकर भी किसानों को अपने व्यवसाय में कायम रख पाने में समर्थ नहीं है। भारत में तो चारों ओर से किसान लूटे जा रहे हैं-उत्पादन, व्यापार और कीमतों की मार्फत। भारत सरकार की ‘आर्थिक समीक्षा’ ने भी स्वीकार किया है कि इस दशक में बेरोजगारी में भारी इजाफा हुआ है।
भारत के आर्थिक विकास की रणनीति उपयुक्त नहीं है। हाल ही में वरिष्ठ अर्थशास्त्री अमित भादुड़ी ने चर्चित पुस्तक ‘डेवलपमेंट डिग्निटी’ में लिखा है कि भारत जैसे देश के विकास के लिए दो शर्तें जरूरी हैं। पहली, भारत अधिक से अधिक विकास दर अवश्य हासिल करे, लेकिन गरीबों पर पड़ने वाले इसके प्रभावों से आंखें मूंद कर नहीं। यानी विकास और वितरण दोनों साथ-साथ चलने चाहिए। दूसरी, आर्थिक विकास की प्रक्रिया में आम नागरिकों की भागदारी सुनिश्चित होनी चाहिए। भादुड़ी का मानना है कि विकास का मूल्यांकन रोजगार के अवसरों के निर्माण से होना चाहिए। विकास दर को ही अपने आप में आर्थिक विकास का लक्ष्य मान लेना गलत है। भारत में राष्ट्रीय आय की वृद्धि के साथ-साथ आबादी के एक बड़े हिस्से की विपन्नता भी बढ़ती जा रही है। इसका निराकरण सिर्फ विकास दर से नहीं हो सकता। देश में बढ़ता संकट-जिसकी अभिव्यक्ति किसानों की आत्महत्या और बढ़ती सामूहिक हिंसा से हो रही है-की जड़ में जीवन यापन के घटते अवसर हैं।
भारत में दो तिहाई आबादी की जीविका खेती और संबंधित कामों से चलती है। यों तो कृषि क्षेत्र की उपेक्षा की कहानी बहुत लंबी है, पर नब्बे के दशक से इसका सिलसिला काफी तेज हो गया। नतीजतन, अधिकांश आबादी की गरीबी और थोड़े-से लोगों की अमीरी दोनों जोरों से बढ़ीं। ग्यारहवीं योजना में उद्योगों में भारी निवेश कर बारह प्रतिशत वृद्धि दर की उम्मीद की जा रही है। लेकिन औद्योगिक बढ़ोतरी आर्थिक विकास दर के आंकड़े को प्रभावशाली बना सकती है, पर्याप्त रोजगार पैदा नहीं कर सकती।
भारत के सही विकास के लिए कृषि विकास और ग्रामीण उत्थान के सिवा दूसरा रास्ता नहीं है। देश की अधिकतर आबादी खेती और उससे जुड़े व्यवसायों से जीविका चलाती है, हालांकि कृषि की भागीदारी राष्ट्रीय आय में 1950 में जहाँ पचास प्रतिशत थी, अब घट कर चौबीस प्रतिशत हो गई है। इतनी बड़ी आबादी को बड़े उद्योगों में रोजगार नहीं दिया जा सकता। देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती अधिक-से-अधिक गरीबों की क्रय शक्ति बढ़ाना है। दूसरे, कृषि और छोटे उद्योगों की तरक्की इनमें लगे लोगों से ही हो जाएगी। इनके पास लंबा अनुभव है। मगर देश ने ग्रामीण संस्थाओं और उनकी क्षमता का पूरा इस्तेमाल नहीं किया है। अंधाधुंध विदेशी पूंजी, तकनीक और उत्पादन पद्धति भारत की कृषि, सामाजिक और भौगोलिक परिवेश के लिए उपयुक्त नहीं हैं। इसलिए खेती और गाँवों का उत्थान ही देश को समृद्ध बना सकता है।
चीन ने घोषणा की है कि वह अपने विकास कार्यक्रम में ग्रामीण उत्थान को प्राथमिकता देगा। इसे चीन ने ‘नए समाजवादी ग्रामीण क्षेत्र’ की संज्ञा दी है। पिछले साल उसने ग्रामीण इलाकों में मजदूरी में बढ़ोतरी की। वहाँ ग्रामीण मजदूरी बढ़ कर 403 डॉलर हो गई है। नतीजतन अब मजदूर चीन के तटीय शहरों में जाने की बजाय गांवों में ही रहना पसंद करने लगे हैं। ताजा आकलन के मुताबिक विश्व बैंक और विश्व व्यापार संगठन के सुझावों को लेकर तीसरी दुनिया के देश उत्साहित नहीं है।
विकासशील देशों में यह धारणा तेज हो रही है कि गाँवों को नजरअंदाज कर केवल बड़े उद्योगों की मार्फत विकास का रास्ता तय नहीं किया जा सकता है। वह अनुभव सामने आ रहा है कि भूमंडलीकरण से तीसरी दुनिया के देशों को पर्याप्त लाभ नहीं हो रहा है। कई बड़े अर्थशास्त्रियों द्वारा स्थापित इस अवधारणा को, कि खुली अर्थव्यवस्था और तेज विकास में सीधा रिश्ता है, समय ने गलत प्रमाणित किया है। यह धारणा भी गलत साबित हुई है कि खुली अर्थव्यवस्थाएँ सिर्फ सोलह साल में अपने को दूना कर लेती हैं जिसे पाने के लिए बंद अर्थव्यवस्थाओं को सौ साल लगते हैं।
भारत का सम्यक् पुनर्निर्माण गांव के रास्ते और कृषि विकास से ही संभव है। भारत के आर्थिक परेशानी में पड़ते जाने का कारण यह है कि इसने खेती की अनदेखी की और गांवों को उजड़ने दिया। शहरों में बढ़ती गरीबी की समस्या गांवों से ही आई है। राष्ट्रपति महोदय ने साफ कहा है कि छह लाख गांवों के विकास के मार्फत ही देश का सम्यक विकास संभव है। उनकी राय है कि सारे देश में ‘गाँवों में शहरी सुविधाओं का कार्यक्रम’ शुरू किया जाए। यह योजना गाँव के ज्ञान संयोजन, भौतिक संयोजन का जरिया बनती हुई आर्थिक विकास का केन्द्र बने। देश के छह लाख गांवों में ऐसे ‘पूरा’ के जाल के मार्फत ही भारत 2020 तक उन्नत देशों की श्रेणी में शामिल हो सकता है।
सन् 2003 में ‘मिशन 2007’ की स्थापना हुई थी जिसका लक्ष्य गाँवों को दूसरी सुविधाओं से जोड़ना है। फिर ‘राष्ट्रीय किसान आयोग’ ने भी सिफारिश की है कि देश के गाँवों की उत्पादकता बढ़ाने में अप्रत्याशित भूमिका निभाएगा। यह लोगों की मानसिकता मेंं बदलाव लाएगा और उत्पादन पद्धति में भी विज्ञान और तकनीक का क्रमिक समावेश करेगा। इससे खेती और छोटे धंधों को प्रोत्साहन मिलेगा। सामाजिक पूंजी को, जो युगों से किसी न किसी तरह ग्रामीण जीवन में कायम है, सुदृढ़ करेगा।
नतीजतन, गाँवों की छिपी उत्पादन क्षमता का अधिक इस्तेमाल दी हुई संस्थाओं के तहत होगा क्योंकि हमने अभी तक इसको काम में नहीं लिया है। भारत की गरीबी उत्पादकता की कमी और उत्पादों के लाभदायक मूल्य के अभाव के कारण है। ग्रामीण विकास केन्द्र के जरिए इसमें सुधार होगा। राष्ट्रीय किसान आयोग के अध्यक्ष स्वामीनाथन ने ठीक कहा है कि ‘ग्रामीण ज्ञान केन्द्र’ द्वारा देश में एक ज्ञान-क्रांति होगी, जो देश के अंदर मानवीय उत्पादकता और उद्यमशीलता को बढ़ाएगी। राष्ट्रपति का भी मानना है कि ‘पूरा’ के विकास से ग्रामीणों की क्षमता बढ़ेगी।
ग्रामीण ज्ञान केन्द्र के मार्फत गाँवों में शहरी सुविधाओं का कार्यक्रम यानी सह-विकास की एक नई रणनीति जो विकास की बदलती परिभाषा के अनुरूप होगी। जब से राज्य के हस्तक्षेप में कमी आई है यह माना जाता है कि विकास की दो शर्तें हैं-पहली, राज्य और नागरिक और दूसरी, विकास का अर्थ सिर्फ राष्ट्रीय आय के इजाफे से नहीं, बल्कि इसके साथ ही मानवीय क्षमता में बढ़ोतरी से है। ग्रामीण विकास केन्द्रों का जाल सामाजिक पूंजी का निर्माण करेगा, जिसकी कमी विकास के लक्ष्यों के पूरा नहीं हो पाने में सबसे बड़ी बाधा रही है।
सामाजिक पूंजी ‘उन साधनों के वे समूह हैं जो समुदाय के सामाजिक संगठन में अंतर्निहित होते हैं’ और जो ‘विश्वास, आदर्श और संरचना के मार्फत समाज के कामों की दक्षता में इजाफा करते हैं।’ देश में बेहतर सामाजिक पूंजी की अहम भूमिका है। विकास में विफलता इसलिए है कि समाज बहुत विखंडित है। आर्थिक विकास के लिए जिस सामूहिक मनोवृत्ति की आवश्यकता है वह पनप नहीं पाती है। ग्रामीण ज्ञान/विकास केन्द्र सामूहिकता पैदा करेगा जिससे एक नए राष्ट्र की सामाजिक पूंजी का निर्माण होगा और इसी के बल पर देश के भौतिक साधनों और मानवीय दक्षताओं में वृद्धि होगी।
हाल में योजना आयोग के साथ बिहार सरकार के अधिकारियों की बैठक हुई। इसमें बिहार के मुख्यमंत्री ने अपने राज्य को विशेष राज्य का दर्जा देने और ग्यारहवीं योजना में योजना के विकास लक्ष्य के अनुरूप अधिक धन मुहैया कराने की मांग की। विकास के मामले में अभी बिहार ठहरा हुआ है। अच्छा होता कि गाँवों में शहरी सुविधाओं का कार्यक्रम बनाने पर जोर दिया जाता। यह कई तरह से अधिक उपयुक्त होता। बिहार वह राज्य है जिसका आर्थिक पिछड़ापन हद को पार कर गया है। भारी संख्या में लोग दूसरे राज्यों में काम के लिए पलायन करते हैं। यहाँ खेती पूरी तरह घाटे का धंधा है।
किसान खेती छोड़ कर दूसरे व्यवसाय में जाने के लिए लालायित हैं, लेकिन जाएं कहाँ। सरकार ने नई औद्योगिक नीति के तहत उद्यमियों को सब तरह के प्रोत्साहन देने का वादा किया है, लेकिन किसानों और कामगारों के लिए जिन नीतियों की चर्चा है उनसे आने वाले दिनों में बिहार में भी किसानों का वही हाल हो सकता है जो दूसरे कई राज्यों में हुआ। यह सर्वविदित है कि उन्हीं राज्यों में किसानों की आत्महत्या की घटनाएँ सबसे ज्यादा हुई हैं जहाँ खेती को उद्योग में बदलने का प्रयास हुआ है।
बिहार में विकास की ‘पुरा’ अवधारणा का खास महत्त्व है। जब तक पैंतालीस हजार गाँवों को विकास की धुरी नहीं बनाया जाएगा, राज्य का विकास नहीं हो सकता है। जरूरत है ‘पुरा’ के समूह को चिन्हित करने और तैयार करने की। बिहार में पहले से ऐसे कुछ केन्द्र हैं जो विकास केन्द्र की भूमिका अदा कर सकते हैं। उदाहरण के रूप में बेगूसराय जिले के गोदरगावाँ गाँव को लिया जा सकता है। यह विकास केन्द्र की जिम्मेदारी संभालने की पूरी क्षमता रखता है। इसका ‘विप्लवी पुस्तकालय’ पुस्तकों के अपने संग्रह के कारण एक ज्ञान-केन्द्र तो है ही, यह एक आधुनिक सभागार-भवन के सहारे इलाके के करीब दस से पन्द्रह गाँवों से संपर्क सूत्र बनाए हुए हैं। वैसे गोदरगावाँ का क्रांतिकारी इतिहास रहा है, आजादी की लड़ाई के दौरान इसने अनेक बार अंग्रेजी सरकार के जुल्म सहे। आज यह पुस्तकालय के माध्यम से इलाके के लोगों का ज्ञानवर्द्धन करने का काम और बैठकों और सामूहिक कार्यों के मार्फत नागरिक अधिकार और कर्त्तव्य की चर्चा और समय-समय पर प्रदर्शनी लगा कर लोगों में विकास के प्रति उत्साह भी पैदा करता है।
यदि बिहार सरकार गोदरगावाँ ज्ञान की तर्ज पर समूचे राज्य में ग्रामीण विकास केन्द्रों का चयन कर विकास की योजना तैयार करती है तो यह विकास की एक नई विधा होगी। इससे एक नई सामाजिक पूंजी का पुनर्गठन होगा। विश्व बैंक द्वारा प्रकाशित रपट ‘बिहार: टुवर्ड्स ए डेवलपमेंट स्ट्रैटेजी’ में भी बिहार के विकास की चुनौती का सामना करने के लिए ‘सामुदायिक सहभागिता’ की भूमिका को अहम माना गया है। ग्रामीण विकास केन्द्र आधारित विकास योजना बिहार के लिए सर्वोपरि महत्त्व रखती है क्योंकि इससे पूंजी निवेश के लिए होने वाले घमासान और कृषि को उद्योग में तब्दील करने के तामझाम से छुटकारा मिलेगा।
(साभार: जनसत्ता, नई दिल्ली, शुक्रवार, 1 सितम्बर, 2006)
Click
We use cookies to analyze website traffic and optimize your website experience. By accepting our use of cookies, your data will be aggregated with all other user data.