संरक्षक मंडल :-
श्री राजेन्द्र राजन (मुख्य संरक्षक -सह- प्रतिनिधि), श्री सर्वेश कुमार (विधान पार्षद), श्री राजकुमार सिंह (विधायक), डॉ० एस० पंडित, डॉ० शशिभूषण प्रसाद शर्मा, डॉ० सीताराम सिंह प्रभंजन (पूर्व प्राचार्य), श्री अभिनंदन कुँवर एवं मोहम्मद सईद
कोर कमिटि:-
श्री राजेन्द्र राजन, श्री रमेश प्र० सिंह, श्री आनन्द प्र० सिंह, श्री विष्णुदेव कुँवर, श्री भूषण सिंह, श्री रामकुमार सिंह, श्री राजकिशोर सिंह, श्री पवन कुमार सिंह, श्री रामबहादुर यादव, श्री रामकुमार यादव (बमबम यादव), श्री अगम कुमार, अवनीश राजन, श्री मनोरंजन कुमार, मो० शमशेर आलम, श्री राघवेन्द्र कुमार
पदाधिकारी:-
प्रतिनिधि - श्री राजेन्द्र राजन
अध्यक्ष - श्री रमेश प्रसाद सिंह
उपाध्यक्ष - श्री भूषण सिंह
सचिव - श्री आनन्द प्रसाद सिंह
संयुक्त सचिव - श्री अवनीश राजन
कोषाध्यक्ष - श्री विष्णुदेव कुँवर
पुस्तकाध्यक्ष - श्री अगम कुमार
सहा० पुस्तकाध्यक्ष - श्री राघवेन्द्र कुमार
समिति सदस्य:-
श्री रामबहादुर यादव, श्री नरेंद्र कुमार सिंह (संपादक), श्री राम कुमार सिंह, श्री राजकिशोर सिंह, श्री रामकुमार यादव, श्री रवींद्र सिंह (रबीन जी), श्री पवन कुमार सिंह, श्री धीरज कुमार (बहदरपुर), श्री मनोरंजन कुमार, श्री केसरी किशोर सिंह, श्री रामचंद्र राय, श्रीमती स्वाति गोदर, मोहम्मद शमशेर आलम, श्री राम चंद्र ठाकुर, श्री रामउदय यादव
विप्लवी पुस्तकालय का संक्षिप्त परिचय
● 26 फरवरी, 1931 से विप्लवी पुस्तकालय स्वतंत्रता, समानता एवं सृजन हेतु प्रतिबद्ध है।
● स्वतंत्रता संग्राम का केन्द्र बने पुस्तकालय से जुड़े जुझारू युवकों ने 1931 के बेगूसराय गोलीकांड (26 जनवरी) के दिन अंग्रेज पुलिस की लाठियाँ खाई। फिर 1942 के आंदोलन में निकट के लाखो रेलवे स्टेशन को जला डाला, फिर रेल की पटरियों को उखाड़ कर अंग्रेज सरकार की जड़ें हिला दी। फलस्वरूप सरकार बौखला कर गाँववासियों पर जहाँ दमनात्मक जुल्म ढाया वहीं सामूहिक जुर्माना भी वसूल किया।
● 1946 में अंतरिम आजाद सरकार द्वारा जुर्माने की राशि लौटा देने पर गाँववासियों ने स्मारक स्वरूप पुस्तकालय भवन का निर्माण किया था, जो आजादी के बाद वर्षों-वर्ष तक उपेक्षित रहा और भवन खंडहर में तब्दील हो चुका था।
● गाँव की दूसरी पीढ़ी ने अपनी धरोहर को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से खंडहर में तब्दील पुस्तकालय को सुंदर एवं प्यारा-सा रूप देते हुए भवन निर्माण कराया। 25 सितम्बर, 1986 को राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जयन्ती सप्ताह के अन्तर्गत उत्सवी माहौल में तत्कालीन जिलाधिकारी अफजल अमानुल्लाह ने पुस्तकालय का उद्घाटन किया।
● स्वतंत्रता के लिए संकल्पित गाँव के सर्वश्री सत्यनारायण शर्मा, रामस्वरूप सिंह, कांता प्रसाद सिंह, माजिद अली, चमरू यादव, मथुरा प्रसाद सिंह, शिवजी चौधरी, फेकू राय, सीताराम सिंह, सत्यनारायण सिंह, जगदीश प्रसाद सिंह एवं फातो राय आदि ने धार्मिक एवं जातिगत विभेदों को त्यागकर ठाकुरवाड़ी की एक कोठरी में इसकी स्थापना की। कुछ वर्ष बाद श्री सत्यनारायण शर्मा ने पुस्तकालय भवन हेतु जमीन दान में दी। सर्वसम्मति से श्री रामस्वरूप सिंह को संस्थापक अध्यक्ष तथा श्री सत्यनारायण शर्मा संस्थापक सचिव निर्वाचित हुए। विदित हो कि अब उपरोक्त सभी सदस्य दिवंगत हैं।
● पुस्तकालय के बहुआयामी आकर्षक सांस्कृतिक भवन ‘देवी वैदेही सभागार’ का निर्माण श्रीमती वैदेही देवी पति स्वú रुद्रनारायण शर्मा द्वारा प्रदत्त भूमि पर किया गया। सभागार का शिलान्यास डाú पीú गुप्ता के कर कमलों से संपन्न हुआ जबकि उद्घाटन सुप्रसिद्ध कथाकार कमलेश्वर ने की।
उद्घाटन अवसर पर आयोजित भव्य समारोह को संबोधित करते हुए नामचीन साहित्यकार डॉú नामवर सिंह ने इसे ‘अद्वितीय’, ‘अद्भुत’ और ‘प्रेरणादायक’ तथा कमलेश्वर ने ‘अक्षत् दीप स्तंभ_ ‘दुर्लभ सत्य’ एवं ‘शब्द-संस्कृति का आधुनिक तीर्थ’ कहा।
● बहुजन हिताय---शिक्षा, संस्कृति व संस्कार विकसित करने हेतु यह संकल्पित है।
● वर्तमान में बहुभाषिक, बहुविध विषयों के प्राचीन एवं नई से नई लगभग 40000 (चालीस हजार) पुस्तकें संग्रहित हैं। इन दुर्लभ पुस्तक संग्रह को वैश्विक आकार प्रदत्त करते हुए सर्वसुलभ बनाया जाय इसके लिए पुस्तकालय कमिटी ने निर्णय लिया है कि पुस्तकालय को इलेक्ट्रॉनिक लाइब्रेरी से जोड़ें। इसके लिए एक अपील भी जारी की गई है।
● पुस्तकालय परिसर में स्थापित भगत सिंह की कांस्य प्रतिमा और देवी वैदेही सभागार के मुख्य द्वार पर युग प्रवर्त्तक कबीर तथा विद्रोहिणी मीरा की आदमकद भव्यमूर्ति एवं 1931 के छः शहीदों की स्मृति में निर्मित स्मारक के साथ कथाकार प्रेमचंद एवं प्रवेश द्वार पर क्रांतिकारी चन्द्रशेखर आजाद की आदमकद प्रतिमा आम अवाम के प्रेरणास्रोत बने हुए हैं।
● देश की सभी भाषाओं के लेखकों का ऐतिहासिक संगठन प्रगतिशील लेखक संघ, जिसके सभी राष्ट्रीय अधिवेशन 1936 से देश के बड़े-बड़े नगरों-महानगरों में संपन्न होते रहे हैं का 14वाँ राष्ट्रीय अधिवेशन प्रथम बार इसी गोदरगावाँ की धरती पर 9,10,11 अप्रैल, 2008 को शानदार ढंग से कमलेश्वर नगर (पुस्तकालय परिसर) में संपन्न हुआ। इस राष्ट्रीय अधिवेशन में 22 राज्यों के 278 प्रतिभागियों ने भाग लिया। प्रतिभागी नामचीन साहित्यकारों ने अपना उद्गार प्रकट करते कहा कि-‘विप्लवी पुस्तकालय बन्दूक के विकल्प में पुस्तक की संस्कृति का सामाजिक-सांस्कृतिक अभियान है।’ इस ऐतिहासिक अवसर पर मुख्यरूप से डॉú नामवर सिंह, रंगकर्मी हबीर तनवीर, असगर अली इंजीनियर, डॉú विश्वनाथ त्रिपाठी, तलसीराम, पुन्नीलन, बंगलादेश के बदीउर्ररहमान के अतिरिक्त सभी भाषाओं के कई सशक्त विद्वान हस्ताक्षर उपस्थित थे। 2010 के वार्षिकोत्सव में प्रेमचंद की प्रतिमा अनावरण कार्यक्रम में प्रसिद्ध पत्रकार कुलदीप नैयर एवं शहीद भगत सिंह का भांजा प्रो- जगमोहन की उपस्थिति उल्लेखनीय रही।
● नव साम्राज्यवाद के विरुद्ध सांस्कृतिक मार्च, साहित्यिक आमसभा तथा सांस्कृतिक कार्यक्रमों में आस-पास के गाँव के अतिरिक्त दूसरे जिले के लोगों ने भाग लिया जो 10 से 15 हजार की संख्या में थे और हबीब तनवीर निर्देशित एवं रवीन्द्रनाथ ठाकुर रचित नाटक ‘राजरक्त’ को देखा। इसे ऐतिहासिक प्रदर्शन माना गया।
● तीन दिवसीय अधिवेशन की अद्भुत समां थी गाँव में। एक-एक घर ‘प्रांत’ बन गए थे और गाँव ‘देश’। यानी एक गाँव में सम्पूर्ण राष्ट्र का दर्शन हो रहा था।
● 19 एवं 20 मार्च, 2017 को समान शिक्षा पद्धति जैसे महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर दो दिवसीय ‘‘शिक्षा बचाओ सम्मेलन’’ के तहत प्रांतीय सम्मेलन सम्पन्न हुआ। जिसके मुख्य अतिथि प्रो- अनिल सद्गोपाल थे।
● साम्यवादी व्यक्तित्व के धनी, गरीबों के मसीहा डॉú पीú गुप्ता की प्रतिमा अनावरण कार्यक्रम में 24 मई, 2017 को बिहार के मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार की उपस्थिति ऐतिहासिक हो गया। इसी दिन विप्लवी पुस्तकालय को विशिष्ट पुस्तकालय का दर्जा मिला।
● प्रत्येक वर्ष 23 मार्च को शहीद भगत सिंह की शहादत दिवस एवं राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की जयंती पर पुस्तकालय में संगोष्ठी आयोजित की जाती है। जिसमें देश के महान विभूति का आगमन विप्लवी की धरती पर होती है। जिससे आमजन को आगे बढ़ने का हौसला मिलता है।
विप्लवी पुस्तकालय एक अनोखा अनुभव
वेदप्रकाश / प्राध्यापक हिन्दी विभाग, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय
संस्थाओं और सामूहिकता के टूटने के इस दौर को लेकर बहुत से लोग अतिवाद तक पहुंच जाते हैं और घनघोर निराशा व्यक्त करते हैं। लेकिन इस दौर में कुछ ऐसा भी है जो मूल्यों से युक्त, आंदोलनधार्मी, आशा को बनाए रखने वाला, स्वाधीन चेतना का प्रतीक और प्रेरणा देने वाला है यह अनुमान की नहीं, अनुभव की बात है। वह अनुभव है 'विप्लवी पुस्तकालय' 'विप्लवी पुस्तकालय जाकर ही उसकी भव्यता और महत्ता का पता चलता है। इसका ब्यौरा प्रस्तुत कर रहे हैं।
आज का समय संस्थाओं और सामूहिकता के टूटने का समय कहा जाता है। बहुत से लोगों को यह संकट जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में दिखाई पड़ता है। वे इसे लेकर अतिवाद तक पहुँच जाते हैं और घनघोर निराशा व्यक्त करते हैं। लेकिन ऐसा कहे जाने वाले समय में कुछ ऐसा भी है जो मूल्यों से युक्त, आंदोलनधर्मी आशा को बनाए रखने वाला, स्वाधीन चेतना का प्रतीक और प्रेरणा देने वाला है। यह अनुमान ही नहीं, अनुभव की बात है। यह अनुभव है विप्लवी पुस्तकालय । कुछ जगहों के बारे में यह कहा जाता है कि यदि आप उन्हें स्वयं जाकर न देखें तो उनकी भव्यता और महत्ता का अनुमान नहीं कर सकते। 'विप्लवी पुस्तकालय' के विषय में भी यह कहा जा सकता है।
यह पुस्तकालय बेगूसराय (बिहार) जिले के मटिहानी प्रखंड के एक गाँव-गोदरगावों में स्थित है। इस गाँव में पहले कुछ मुसलमान रहते थे जी गुद्दर यानी फटे-पुराने कपड़ों से गेंदरा (सुजनी) तैयार करने का काम करते थे। अतः इसे सुंदरगामा नाम से जाना जाने लगा। बाद में यही गोदरगावाँ हो गया। गोदरगावाँ और विप्लवी पुस्तकालय का अतीत बहुत रोमांचक है। स्वाधीनता से पहले गाँव में एक ठाकुरबाड़ी थी, जहां से क्रांतिकारी गतिविधियों का संचालन होता था। 26 जनवरी, 1931 को बेगूसराय में अंग्रेजी शासन के विरोध में एक जुलूस निकला। अंग्रेजों ने इस जुलूस पर गोलियाँ चलाई। छह युवक मारे गये। जुलूस से लौटकर गोदरगावाँ के युवकों ने क्रांतिकारी केन्द्र के निर्माण हेतु गाँव की उपर्युक्त ठाकुरबाड़ी में एक बैठक की। वहीं क्रांतिकारी साहित्य एवं पत्र-पत्रिकाएँ मंगवाने के लिए महावीर पुस्तकालय की स्थापना की गई। इस कार्य में स्व. सत्यनारायण शर्मा का बहुत बड़ा योगदान था । अन्य लोगों में रामस्वरूप सिंह, कामता प्रसाद सिंह, शिवजी चौधरी, चमरू यादव, माजिद अली, सत्यनारायण सिंह, फातो राय, सीताराम सिंह, जगदीश प्रसाद सिंह और फेकू राय प्रमुख थे। यह पुस्तकालय सांप्रदायिक और जातीय सद्भाव का अदभुत नमूना बन गया था। लोग वहाँ बिना भेदभाव के इकट्ठे होते थे।
सन् 1942 की अगस्त क्रांति के पास के लाखो स्टेशन को लूटने, जलाने और पटरियों को उखाड़ फेंकने में
पुस्तकालय से जुड़े युवकों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। इस जुर्म की सजा के रूप में अंग्रेज सरकार ने गोदरगावों से आठ
सौ रुपये जुर्माने की रकम वसूल की। चूंकि ठाकुरबाड़ी में चल रहा पुस्तकालय आजादी की लड़ाई का केन्द्र बना हुआ था,
इसलिए 1946 में डा. श्रीकृष्ण सिंह के नेतृत्व में बनी अंतरिम सरकार द्वारा जुर्माने की राशि वापस कर दी गई। इस राशि से
ही स्मारक - स्वरूप पुस्तकालय भवन का निर्माण कराया गया। आरंभ में यानी सन् 1947-48 में यह ईंट - खपड़े का भवन
बना। काफी समय तक निर्माण का कार्य अधूरा पड़ा रहा। लेकिन कुछ मित्रों- राजेन्द्र राजन, रामचन्द्र सिंह, राजेन्द्र प्रसाद
सिंह, वैद्यनाथ दास आदि के परिश्रम से पुस्तकालय में पुस्तकों तथा पत्रिकाओं के संग्रह का कार्य आरंभ हुआ ।
सत्यनारायण शर्मा ने अपने पुत्र राजेन्द्र राजन से कहा कि मेरी मृत्यु के बाद श्राद्ध करने के स्थान पर पुस्तकालय बनवा
देना । सत्यनारायण जी की मृत्यु के बाद एक वर्ष के भीतर सन् 1985-86 में इस पुस्तकालय के शानदार भवन का निर्माण
हुआ और 25 सितंबर, 1986 को उद्घाटन । यही विप्लवी पुस्तकालय कहलाया। इस पुस्तकालय में अपने समय की
नई से नई पुस्तक उपलब्ध है। आज जब बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों को पुरानी पुस्तकों के गायब होने और नई पुस्तकों के
अभाव के संकट का सामना करना पड़ रहा है, विप्लवी पुस्तकालय' अपने आप में एक उदारहण है। इस पुस्तकालय के
परिसर में शहीदे-आजम भगतसिंह की कांस्य प्रतिमा लगाई गई है।
2002-03 में पुस्तकालय के ठीक सामने देवी वैदेही सभागार का निर्माण हुआ। भगतसिंह के बलिदान दिवस के अवसर पर 23 मार्च, 2003 को इसका उद्घाटन कमलेश्वर ने किया। यह सभागार एक संग्रहालय की भूमिका निभाता है। इसमें हिंदी के लगभग सभी प्रसिद्ध साहित्यकारों के चित्र लगे हैं। कम्प्यूटर, संगीत, नाट्यकला, चित्रकला तथा स्वरोजगार के प्रशिक्षण का संचालन यहाँ सफलतापूर्वक किया जाता है। यह सभागार आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित है। इसमें सांस्कृतिक समारोह, नाटक, गोष्ठियाँ तथा सभाएँ आयोजित की जाती हैं। प्रॉजेक्टर है, इसलिए फिल्म भी दिखाई जाती हैं। इसमें कम-से-कम पाँच सौ लोगों के बैठने की व्यवस्था हैं, सभागार के प्रत्येक तल पर अतिथियों के रुकने के लिए सुविधायुक्त, सुसज्जित कमरे हैं। इन कमरों का नामकरण प्रेमचंद की रचनाओं के नाम पर किया गया है। सभागार की बाहरी दीवार पर ऊपर की ओर मीरा की विशाल प्रतिमा और नीचे उन छह युवकों की प्रतिमाएँ हैं जो 1931 में अंग्रेजों की गोलियों के शिकार हुए थे।
'विप्लवी पुस्तकालय' ने बेगूसराय के लोगों को नई चेतना दी है। वैसे यह पुस्तकालय स्वयं उनकी चेतना का प्रतीक है। जब भी गोदरगावाँ जाना होता है, वहाँ के लोग नए उत्साह, उमंग, जोश और आशा से भरे दिखाई देते हैं। गौरवपूर्ण अतीत तो भारत के बहुत-से गाँवों का है लेकिन उनमें से कितने गाँवों ने उस अतीत को याद रखा और उसके आधार पर विकास किया है? यह पुस्तकालय राज्य ही नहीं, देश का आदर्श पुस्तकालय माना जा रहा है। यहाँ प्रतिवर्ष मेला लगता है और राष्ट्रीय स्तर के विद्वान, विचारक राजनेता इकट्ठे होते हैं। जीवन की अंतः संबद्धता यहाँ साक्षात नजर आती है ।
सन् 1942 की अगस्त क्रांति के पास के लाखो स्टेशन को लूटने, जलाने और पटरियों को उखाड़ फेंकने में पुस्तकालय से जुड़े युवकों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। इस जुर्म की सजा के रूप में अंग्रेज सरकार ने गोदरगावाँ से आठ सौ रुपये जुर्माने की रकम वसूल की। चूंकि ठाकुरबाड़ी में चल रहा पुस्तकालय आजादी की लड़ाई का केन्द्र बना हुआ था, इसलिए 1946 में डा. श्रीकृष्ण सिंह के नेतृत्व में बनी अंतरिम सरकार द्वारा जुर्माने की राशि वापस कर दी गई। इस राशि से ही स्मारक - स्वरूप पुस्तकालय भवन का निर्माण कराया गया। आरंभ में यानी सन् 1947-48 में यह ईट- खपड़े का भवन बना। काफी समय तक निर्माण का कार्य अधूरा पड़ा रहा। लेकिन कुछ मित्रों- राजेन्द्र राजन, रामचन्द्र सिंह, राजेन्द्र प्रसाद सिंह, वैद्यनाथ दास आदि के परिश्रम से पुस्तकालय में पुस्तकों तथा पत्रिकाओं के संग्रह का कार्य आरंभ हुआ। सत्यनारायण शर्मा ने अपने पुत्र राजेन्द्र राजन से कहा कि मेरी मृत्यु के बाद श्राद्ध करने के स्थान पर पुस्तकालय बनवा देना । सत्यनारायण जी की मृत्यु के बाद एक वर्ष के भीतर सन् 1985-86 में इस पुस्तकालय के शानदार भवन का निर्माण हुआ और 25 सितंबर, 1986 को उद्घाटन । यही विप्लवी पुस्तकालय कहलाया । इस पुस्तकालय में अपने समय की नई से नई पुस्तक उपलब्ध है। आज जब बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों को पुरानी पुस्तकों के गायब होने और नई पुस्तकों के अभाव के संकट का सामना करना पड़ रहा है, 'विप्लवी पुस्तकालय अपने आप में एक उदारहण है। इस पुस्तकालय के परिसर में शहीदे-आजम भगतसिंह की कास्य प्रतिमा लगाई गई है।
2002-03 में पुस्तकालय के ठीक सामने 'देवी वैदेही सभागार का निर्माण हुआ। भगतसिंह के बलिदान दिवस के अवसर पर 23 मार्च, 2003 को इसका उद्घाटन कमलेश्वर ने किया। यह सभागार एक संग्रहालय की भूमिका निभाता है। इसमें हिंदी के लगभग सभी प्रसिद्ध साहित्यकारों के चित्र लगे हैं। कम्प्यूटर, संगीत, नाट्यकला, चित्रकला तथा स्वरोजगार के प्रशिक्षण का संचालन यहाँ सफलतापूर्वक किया जाता है। यह सभागार आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित है। इसमें सांस्कृतिक समारोह, नाटक, गोष्ठियाँ तथा सभाएँ आयोजित की जाती है प्रॉजेक्टर है. इसलिए फिल्म भी दिखाई जाती हैं। इसमें कम-से-कम पाँच सौ लोगों के बैठने की व्यवस्था हैं, सभागार के प्रत्येक तल पर अतिथियों के रुकने के लिए सुविधायुक्त, सुसज्जित कमरे हैं। इन कमरों का नामकरण प्रेमचंद की रचनाओं के नाम पर किया गया है। सभागार की बाहरी दीवार पर ऊपर की ओर मीरा की विशाल प्रतिमा और नीचे उन छह युवकों की प्रतिमाएँ हैं जो 1931 में अंग्रेजों की गोलियों के शिकार हुए थे।
'विप्लवी पुस्तकालय ने बेगूसराय के लोगों को नई चेतना दी है। वैसे यह पुस्तकालय स्वयं उनकी चेतना का प्रतीक है। जब भी गोदरगावाँ जानी होता है, वहाँ के लोग नए उत्साह, उमंग, जोश और आशा से भरे दिखाई देते हैं। गौरवपूर्ण अतीत तो भारत के बहुत-से गाँवों का है लेकिन उनमें से कितने गाँवों ने उस अतीत को याद रखा और उसके आधार पर विकास किया है? यह पुस्तकालय राज्य ही नहीं, देश का आदर्श पुस्तकालय माना जा रहा है। यहाँ प्रतिवर्ष मेला लगता है और राष्ट्रीय स्तर के विद्वान, विचारक, राजनेता इकट्ठे होते हैं। जीवन की अंतः संबद्धता यहाँ साक्षात नजर आती है।
गोदरगावाँ में नया इतिहास तब बना जब पिछले वर्ष 9 से 11 अप्रैल, 08 को प्रगतिशील लेखक संघ का राष्ट्रीय अधिवेशन आयोजित किया गया। प्रलेस के 72 वर्षों के इतिहास में पहली बार एक गाँव में ऐसा अभूतपूर्व आयोजन, जिसमें नामवर सिंह, हबीब तनवीर, असगर अली इंजीनियर, विश्वनाथ त्रिपाठी, तुलसीराम पुन्नीलन, खगेन्द्र ठाकुर, गीतेश शर्मा और बांग्लादेश के बदीउर्रहमान आदि के साथ भारत के 17 राज्यों 22 भाषाओं के 278 प्रतिनिधि रचनाकार इकट्ठे हुए। इस अवसर पर गोदरगावों में साम्राज्यवाद के विरुद्ध विशाल सांस्कृतिक मार्च निकाला गया। हजारों लोगों ने इसमें भाग लिया। हबीब तनवीर के निर्देशन में, उनके साथ आए 39 कलाकारों द्वारा रवीन्द्रनाथ ठाकुर रचित राजरक्त नाटक की प्रस्तुति को दस हजार से ज्यादा दर्शकों ने देखा और सराहा।
इस बार फिर, डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी के साथ, पांचवी बार गोदरगावाँ जाना हुआ। फिर एक नया अनुभव। जहाँ ऐतिहासिकता होती है या सौंदर्य होता है, वहाँ जाते हुए थकान नहीं, एकरसता नहीं, बल्कि पुनः एक नवीनता का अहसास होता है। गोदरगावाँ जाकर हमेशा ऐसा लगा। राजेन्द्र राजन ने बताया कि इस बार विप्लवी पुस्तकालय के वार्षिकोत्सव के लिए चन्द्रशेखर आजाद के बलिदान दिवस का अवसर चुना गया है। गोदरगावाँ निवासी रामप्रकाश राय ने अपने दिवंगत बड़े भाई रामपदार्थ राय की स्मृति में चंद्रशेखर आजाद की विशाल मूर्ति बनवाई। इसके लिए शांतिनिकेतन से उसी मूर्तिकार - अनिल कुमार पृथ्वी को बुलवाया गया, जिसने देवी वैदेही सभागार के बाहर बनी मूर्तियाँ बनाई थीं। मूर्ति के अनावरण के कार्यक्रम को विप्लवी पुस्तकालय के वार्षिकोत्सव से जोड़ दिया गया। 28 फरवरी, 2009 को सुबह ग्यारह बजे आजाद चौक पर मेले के से माहौल और बैंड-बाजों के माध्यम से देशभक्ति के गीतों की धुनों के बीच बेगूसराय की जनता, राजेन्द्र राजन, गीतकार बुद्धिनाथ मिश्र, पूर्व आई.जी. उमेश प्रसाद सिंह, भगवान सिंह, रमाकान्त चौधरी, मनोरंजन विप्लवी, अमरनाथ सिंह, नरेन्द्र कुमार सिंह अगम, शमशेर, पुरुषोत्तम, विष्णुदेव कुंवर आदि की उपस्थिति में डा. विश्वनाथ त्रिपाठी ने शहीद चंद्रशेखर आजाद की मूर्ति का अनावरण किया।
इसके बाद एक जुलूस के रूप में सभी लोग विप्लवी पुस्तकालय की ओर पैदल चले। आगे-आगे धुन बजाते हुए बैंड-बाजे, उनके पीछे भगतसिंह और आजाद के चित्र लिए हुए विप्लवी पुस्तकालय गोदरगावों के अध्यक्ष कपिलदेव यादव, सचिव आनंद प्र सिंह एवं अन्य सदस्यगण, फिर उपर्युक्त गणमान्य व्यक्ति और पीछे जनसमूह । विप्लवी पुस्तकालय पहुँचकर भगतसिंह की प्रतिमा पर माल्यार्पण करने के बाद सभी लोग सभागार में पहुँचे जहाँ वैचारिक कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। सभागार हमेशा की भांति श्रोताओं से खचाखच भरा था। कार्यक्रम का आयोजन दिलीप कुमार राय द्वारा सरफरोशी की तमन्ना गीत के गायन से हुआ। दीनानाथ सुमित्र ने कविताएँ सुनाई।
डा. विश्वनाथ त्रिपाठी ने मुख्य वक्तव्य देते हुए कहा कि चन्द्रशेखर आजाद ने 'आजाद' नाम अपना खून देकर
अर्जित किया था। हमारे क्रांतिकारियों ने बड़े-बड़े मूल्यवान शब्दों को सकर्मकता से सार्थक किया था । 1857 की राज्यक्रांति पहली ऐसी क्रांति है जो स्टेट पावर पर कब्जा करने का जनांदोलन है। जनादोलनों में जब सेना शामिल होती है तो आंदोलन का चरित्र बदल जाता है। 1857 की क्रांति में हिंदू, मुस्लिम आदि की एकता है, भाषाओं की एकता है। कहा जाता है कि 1857 की राज्यक्रांति असफल हो गई। लेकिन क्रांतियों न तो निस्संतान होती है, न ही असफल। एक क्रांति दूसरी क्रांति को जन्म देती है। हमारे देश के क्रांतिकारी 1857 और 1942 के बीच की कड़ी हैं। यह परंपरा 1946 के नौसेना विद्रोह तक आती है जिसमें सभी धर्मों और क्षेत्रों के लोग फिर से मिलकर लड़े और अंततोगत्वा भारत स्वाधीन हुआ। भारत की आजादी में गाँधी जी का बहुत बड़ा महत्त्व है, लेकिन इस संदर्भ में 1857 के क्रांतिकारियों और उनकी परंपरा का योगदान बहुत व्यापक है।
(साभार: आजकल जून 2009)
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